Sunday, December 28, 2008

ये साल अच्छा है...

ढलती शाम की पीली-धुंधली-सिमटती सी धूप कई बार भीड़ में भी अकेलेपन का अहसास कराती है... खासकर अगर आप इंडिया गेट जैसी जगह पर हों तो अकेलापन आपको काटने भले ही नहीं दौड़े लेकिन दार्शनिक जरूर बना देता है....इत्तफाक से क्रिसमस वाले दिन मेरी छुट्टी थी...दिन ढलने को था औऱ मैं भी पता नहीं क्यों उस रोज इंडिया गेट चला गया....
घास पर लेटा...तो अचानक पता नहीं क्यों गुजर रहा साल जैसे मेरे सामने पूरी शिद्दत के साथ खड़ा था...हर रोज का हिसाब किताब माथे में घूम रहा था
साल ऐसे कई गुजारे पर नहीं मालूम क्यों ऐसा लगा मानो ये साल बस बीत गया...
घटनाएं आंखों के सामने फ्लैशबैक की तरह गुजरती चली गईं...मैं उनमें बहता चला गया....
समय के इस प्रवाह में ज्यादा क्या कहूं...क्या ना कहूं
लेकिन बस उम्मीद है जो हमको आपको सबको चलाए जाती है...
गुजरा है जो, वो साल अच्छा था
आएगा जो साल वो भी अच्छा होगा
फिलहाल उधार की चंद लाइनों के साथ आपको छोड़े जाता हूं---
-एक बिरहमन ने कहा है ये साल अच्छा है
ज़ुल्म की रात बहुत जल्द टलेगी अब तो
आग चूल्हों में हर इक रोज़ जलेगी अब तो
भूख के मारे कोई बच्चा नहीं रोएगा
चैन की नींद हर इक शख्स़ यहां सोएगा
आंधी नफ़रत की चलेगी ना कहीं अब के बरस
प्यार की फ़सल उगाएगी जमीं अब के बरस
है यकीं अब ना कोई शोर-शराबा होगा
ज़ुल्म होगा ना कहीं ख़ून-ख़राबा होगा
ओस और धूप के सदमे ना सहेगा कोई
अब मेरे देश में बेघर ना रहेगा कोई
नए वादों का जो डाला है वो जाल अच्छा है

रहनुमाओं ने कहा है कि ये साल अच्छा है
दिल को ख़ुश रखने को गालिब ये ख़याल अच्छा है


आमीन

Saturday, December 20, 2008

खामोश समंदर प्यासा है...

ये शीर्षक अपने दोस्त जैगम इमाम की कविता से उधार लिया है...ये गुस्ताखी मुझे करनी पड़ी...क्योंकि जब वो रौ में अपनी नज्म सुना रहे थे तो रहा ना गया....पंक्तियां यूं ही ले लीं...लेकिन इनके पीछे का फलसफा बाद में समझ में आया....जिंदगी के चौराहे पर कभी आप ठिठक जाएं तो ये फलसफा आप भी समझ जाएंगे...खैर छायावादी बातों का कोई मतलब नहीं क्योंकि जब जिंदगी दो जोड़ दो बराबर चार के नजरिए से जीनी हो तो वहां ना तो वहां कोरी भावुकता का कोई मतलब होता है औऱ ना ही रोमानी सपनों का...सामने होती है सिर्फ हकीकत की सख्त जमीन...
लेकिन हकीकतों का तानाबाना भी तो अजब होता है....कई बार हकीकतें कल्पना की दुनिया से ज्यादा रपटीली होती हैं...ज्यादा घुमावदार होती हैं....कई बार वाकई आपको समंदर प्यासा मिल सकता है...कई बार खामोशी भी चीखती मिलती है...और चीख में भी सन्नाटा गूंजता है....
इस सन्नाटे का कोई मर्म नहीं होता....कई बार सन्नाटे गाते हैं....कई बार आपको भीतर तक कंपकंपा जाते हैं...कभी किसी पुराने पड़ गए घर की छत पर काई लगी बदरंग दीवारों और मुंडेरों से दुनिया देखिए तो वहां से आपको दुनिया अलग दिखेगी....लेकिन कभी किसी बहुमंजिली इमारत की किसी ऊंची सी मंजिल के शीशों से झांकिए तो नज़ारा दूसरा होगा...
खैर अपना दर्शन आप पर थोपूं...ये भी ठीक नहीं...
फिलहाल तो इस समंदर को प्यासा ही रहने दीजिए...

Wednesday, December 10, 2008

आंधी की तरह उड़कर इक राह गुज़रती है...

अचानक मन उदास हो चला...कहानियां अब भी हैं जो अब सामने आ रही हैं....मुंबई हमलों की कहानियां...घटनाएं जो आज भी मन को छू जाती हैं....वाकये जो सिहरने के लिए मजबूर कर देते हैं...इस लेख के लिए हेडिंग जो चुनी बेशक वो टोन आपको बदला सा लगे...पर मुझे इस उदास दौर में सबसे बेहतर यही शीर्षक लगा...इसकी मेरे पास ना तो कोई व्याख्या है...ना ही कोई दलील...अच्छा लगा सो लिख दिया....
मन जाने क्यों....बार बार मन मुंबई की ओर भटकता है...बल्कि यूं कहें बहकता है....उस शहर से पता नहीं कौन सा रिश्ता है जो मुझे अक्सर खींचता है....गिरगाम चौपाटी हो या फिर सिद्धिविनायक....या फिर अक्सा बीच....या जुहू चौपाटी ...गेटवे पर कबूतरों के बीच मटरगश्ती...और समंदर की लहरों के बीच स्टीमर पर घूमना.....कुछ नाता जरूर है जो मुझे मुंबई से जोड़ता है....हवाओं में अजब सी मिठास है जिसे मैं आज भी महसूस करता हूं....ना तो वहां पला-बढ़ा औऱ ना ही सालों रहा....ना बचपन गुजरा औऱ ना ही बाद के दिन....लेकिन मैं उस शहर में जाता रहा हूं....वहां की गंध को आत्मा से महसूस किया है.....वो गंध आज भी मुझे लुभाती है....
और यही वजह है कि 26 नवंबर के हमलों के बाद वो शहर मुझे और अपना लगने लगा है...कुछ दोस्त हैं जो वहां से अक्सर मुझे याद करते हैं....कुछ पुराने नाते हैं जो शहर से रिश्ता तोड़ चुके हैं....लेकिन मुझे उनके बहाने भी मुंबई बहुत याद आती है....
शायद मुझे इसीलिए गुलजार की ये पंक्तियां याद आ रही हैं....
शायद इसीलिए आज मन बहक रहा है...
काश कि कोई राह होती जो आंधी की तरह उड़कर हमें मंजिलों तक पहुंचा सकती....

Saturday, December 6, 2008

मोशे फिर मुस्कुराएगा...


मुंबई के आतंकी पागलपन को गुजरे कई दिन हो गए...लेकिन चौबीसों घंटे टीवी चैनलों पर तबाही का जो मंजर दिखाया गया वो अभी ताज़ा है...घाव अभी सूखा नहीं है....आतंकी हमले पहले भी हुए हैं...लेकिन जो खूनी छाप इन हमलों ने छोड़ी है...उसे मिटाना बहुत मुश्किल है....बहुत मुश्किल है...मोशे को भूलना...रोता बिलखता मोशे...जिसे कमांडो ऑपरेशन में बचाया गया....दो साल का मोशे जिसके मां बाप नरीमन हाउस में आतंकियों की भेंट चढ़ गए...वही मोशे अब सात समंदर पार अपने वतन इस्राइल लौट गया है....लेकिन उसका चेहरा पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ सबसे बड़े प्रतीक के तौर पर उभर कर सामने आया है....उसका रोना दिल को हिला देने वाला है....उसके आंसू किसी पत्थरदिल को भी पिघलाने की कूवत रखते हैं....मोशे जिस प्लेन से अपने वतन लौटा उसी प्लेन पर ताबूत में उसके मां-पिता के शव भी भेजे गए...मोशे को अभी नहीं मालूम कि आतंकवाद क्या होता है...आतंकवादी क्या होते हैं....उसे तो ये भी नहीं मालूम कि किस जुर्म की सजा उसे मिली...उसे क्या मालूम कि उसका बचपन अब कभी पहले जैसा नहीं हो पाएगा....लेकिन हमें मालूम है....हमें मालूम है कि उसके मां-बाप अब कभी लौटकर नहीं आएंगे...कभी उसकी मां उसे गोद में नहीं खिला पाएगी....पिता का दुलार भी उसे भला कब मिल पाएगा....

क्या आपने मुंबई की उस अजीब सी सुबह में इस्राइली प्रार्थनाघर में वो मातम की भीड़ देखी थी...अगर देखी होगी तो क्या आप अपने आंसूओं पर काबू रख पाए होंगे....वो लोग मोशे के मां-पिता की मौत का मातम मनाने जुटे थे...उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जा रही थी...उसी भीड़ में मोशे भी चुपचाप बैठा था....उसके हाथों में लाल गेंद भी थी...साइनागॉग में बेशुमार लोगों की भीड़ के बीच भी उदास कर देने वाली खामोशी थी....जब भी मोशे रोता....लोग उसके साथ रोते....

अब मोशे अपने वतन लौट गया है

अब अगर सच्चे मन से कोई प्रार्थना करनी है तो बस यही कीजिए कि एक बार फिर से मोशे मुस्करा सके....

एक बार फिर से उसके चेहरे पर हंसी लौट आए....

इन जख्मों को भूलकर वो फले फूले

मोशे एक बार फिर से मुस्कुराए

आमीन

Tuesday, November 18, 2008

उस शहर में मेरा घर भी था...

उस साल दिल्ली में जाड़े ने सबको कंपकपा दिया था...पीली बीमार सी धूप...मोटे लबादे भी बेअसर ....तभी एक रोज दिसबंर के महीने में नई दिल्ली स्टेशन पर अकबकाया सा एक ट्रेन से उतरा था...बेशुमार भीड़ में कहीं खोया सा...भीड़ के रेले के साथ साथ हो लिया....बाहर निकला तो पाया कि ये अजमेरी गेट है....जुबान बदली हुई...लोगों के अंदाज बदले हुए....दोपहर का सूरज पूरी तरह परवान नहीं चढ़ा था....उचटती निगाहों से सबकुछ समझने का भाव चेहरे पर ओढ़े हुए मिंटो रोड पहुंचा और फिर वहां से साकेत की ५०१ नंबर की बस पकड़ ली...पास में एक एयरबैग जो अब भी घर के किसी कोने में पड़ा धूल खा रहा है...साकेत को लेकर कई किस्से थे...पॉश कॉलोनी है....बड़ी इमारतें हैं....सबकुछ हाईप्रोफाइल...अपमार्केट....लेकिन मेरी बस यात्रा खत्म होने के साथ ही शुरू हो गया सपनों की रंगीन दुनिया के बिखरने का सिलसिला....मालूम चला कि पुष्प विहार में रहना है जोकि साकेत इलाके से सटा हुआ है....सरकारी बाबुओं की कॉलोनी है...उसी में टाइप वन के एक क्वार्टर में दूर के रिश्तेदार के पास रूकना था...जिन सज्जन के साथ रुकने का इंतजाम था वो खुद वहां एक कमरे में किराये पर रह रहे थे....पहुंचते ही ज्ञान देने का सिलसिला शुरू हो गया....इस शहर में कोई किसी का नहीं है...काम से काम रखा जाता है....अपना रास्ता खुद तलाशना होगा....बेशर्म बनना होगा...मुझसे भी कोई उम्मीद नहीं रखना...ये सब तुमको स्मार्ट बनाने के लिए बोल रहा हूं....और आखिरी वाक्य...जल्दी से अपना कोई इंतजाम भी कर लो.....हालांकि तब उनकी बातें बहुत रुखी लगी थीं....लेकिन आज इतने बरस गुजर जाने के बाद लगता है कि इस शहर में वो बातें तब भी सही थीं और शायद आज भी....
जिंदगी के कई फंडों की घुट्टी पिलाई गई....वैसे वे फंडे तब काम के नहीं मालूम पड़ते थे....लेकिन अब लगता है कि वाकई उनमें बहुत दम था....एक फंडा था...कोई काम ना भी हो तो बस से घूमकर आ जाओ...कुछ नहीं तो कनाट प्लेस में ही जाकर भटक आओ....तो कभी अखबारों में नौकरियों वाले इश्तेहारों को देखने की सलाह देते...और किसी किसी दिन तो जबरदस्ती वॉक-इन इंटरव्यू के लिए मुझे ठेलकर भेज भी देते.....इस पूरी कवायद का इतना फायदा तो जरूर हुआ कि अजनबी से इस शहर को मैं थोड़ा थोड़ा जानने लगा...
खाने-पीने के तौर तरीके सीखे...ढाबों में बटर के साथ रोटी और अंडे की भुज्जी और दाल फ्राइ का सलीका सीखा....
ठंड के उन दिनों में शामें कई बार उदास होती थीं....धुंधली सी ढलती ढामों में कई बार जीने का मतलब समझ में नहीं आता था....तब एक अदद घर की तलाश थी....
फिर पता चला कि कुछ पुराने दोस्त हैं जो पुरानी दिल्ली की एक गली में घर किराये पर लेकर रहते हैं....मैं भी एक रोज अपना बोरिया बिस्तर उठाकर उसी गली में पहुंच गया....उसी गली का नाम था गली करतार सिंह.....
जिंदगी में अभी कई मोड़ आने बाकी थे....गली करतार की अपनी जिंदगी थी...अपने उसूल थे....लेकिन ये किस्सा फिर कभी.....

Monday, November 17, 2008

उसे भूलने की दुआ करो!

चमकती दमकती दुनिया का ये वो कड़वा सच है जिसका दर्द दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में कभी भी महसूस किया जा सकता है...आपके सामने से बेहद परिचित सा चेहरा गुजर रहा है...लेकिन उसकी निगाह मे एक अजीब सा अजनबीपन है...एक सर्द सा अहसास....वो आपको पहचान रहा है...लेकिन फिर भी अनजान है....भई उसकी अब हैसियत हो गई है...बड़ी कार पर घूमता है...बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं औऱ उसकी बीवी भी अब अंग्रेजी बोलने लगी है....कभी किसी पॉश कॉलोनी के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में टकरा जाए तो उससे ये उम्मीद मत रखिएगा...कि वो आपको तपाक से लगे लगा लेगा...किसी मॉल में सामने से आ रहा हो तो गनीमत इसी में है कि आप किसी बगल की दुकान में शोकेस पर रखी चौंधियाती चीजें देखने लगें...लेकिन फिर भी नजर मिल गई...और आप हंस दिए....तो गए काम से...क्योंकि उसकी आंखों का अजनबीपन आपको भीतर तक चीर कर रख देगा...
दोस्तों ये समय वाकई त्रासद है...यहां कई बार आपको जीने के ऐसे ही मौके मिलेंगे....लोगों की ऐसी ही बर्फीली निगाहों का सामना करना पड़ेगा....क्योंकि इस शहर में सबकी कुछ ना कुछ हैसियत है...और हर अगला अपने आप में किसी तोप से कम नहीं....तो फिर हमारे-आपके लिए सही क्या है...सही तो खैर नहीं मालूम...लेकिन हो सके तो चढ़ती ठंड के इन दिनों में छत पर गुनगुनी धूप में दरी या चटाई पर लेटकर मजे से पढ़िए (अगर आप छुट्टियों में हों) औऱ याद कीजिए बशीर बद्र की उन नायाब लाइनों को--जिसमें बशीर साहब फरमाते हैं---तुम्हे जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो....

Saturday, November 1, 2008

बंद गली का आखिरी मकान!

अक्सर सियासत से जुड़े लोगों की शिकायत होती है कि चाहे मसला कुछ भी हो सारा दोष उनपर मढ़ दिया जाता है। हो सकता है एक-आध मामले में उनकी आपत्ति वाजिब हो...लेकिन ज्यादातर मामलों में नहीं....मराठी मानुष के बहाने सियासत का कोड़ा फटकार रहे राज ठाकरे औऱ हाल के दिनों की कई घटनाओं पर गौर करें तो तस्वीर साफ हो जाएगी। मुंबई जब जल रही होती है तब न तो केंद्र सरकार फिक्र करती है औऱ ना ही राज्य सरकार। उत्तर भारतीय हांके जा रहे होते हैं तो केंद्र से लेकर राज्य तक ऐसा कोई भी ठोस कदम उठाने की जरूरत नहीं समझी जाती जिससे लगे कि हां इस मुल्क में संविधान का राज है...कानून-व्यवस्था का आदर है...दिखाने के लिए राज ठाकरे की गिरफ्तारी होती है...औऱ शहीद का जामा देकर उन्हें पूरी इज्जत के साथ हीरो बनाकर वापस घर भेज दिया जाता है...जहां वीरों की तरह उनका स्वागत किया जाता है....जब इसी सियासत की भेंट चढ़े एक जवान बेटे की अर्थी पटना में उठ रही होती है तो दूर दिल्ली में नेता राजनीति की नूरा कुश्ती में ताल ठोंक रहे होते हैं...यहां कुसूर सिर्फ राज ठाकरे का नहीं है...ये पूरी की पूरी जमात ही कुछ ऐसी है...अब सबको पता है कि जिस विचारधारा की उपज राज ठाकरे हैं वो विचारधारा शिवसेना की है...शिवसेना यानी बीजेपी की साझीदार...उसी बीजेपी की साझा सरकार जेडी यू के साथ बिहार में चल रही है....लेकिन जेडी यू के नेता घड़ियाली आंसू बहाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं...अगर वाकई जेडी-यू महाराष्ट्र की घटनाओं से आहत है तो बीजेपी को शिवसेना से अलग होने के लिए क्यों नहीं कहती...और अगर बीजेपी शिवसेना से नाता नहीं तोड़ती तो वो अपने रिश्ते बीजेपी से खत्म क्यों नहीं कर लेती...बीजेपी राष्ट्रीय एकता की दुहाई देते नहीं थकती...लेकिन क्या मराठी अस्मिता के झंडाबरदारों की करतूतों पर उसके किसी भी लौहपुरुष माने जाने वाले नेता का सख्त बयान आया है? ये तमाम सवाल चुनाव के वक्त जनता जरूर पूछेगी...और तब नेताओं को जवाब देना भारी पड़ जाएगा...
केंद्र सरकार की बात करें....तो पहली बार पीएम मनमोहन सिंह की ओर से बयान कल आया...सरकार को इतने दिन गुजर जाने के बाद शायद मसले की गंभीरता का अहसास हुआ....लेकिन ये लेटलतीफी क्यों...आखिर आप केंद्र की गद्दी पर बैठे किस लिए हैं...जब आप कानून-व्यवस्था के एक मामूली से मसले को नहीं सुलझा सकते....तो भाड़ में जाए ऐसी व्यवस्था...
लेकिन सबसे ज्यादा शाबासी की हकदार तो माननीय विलासराव देशमुख की सरकार है...खासतौर से महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटील ज्यादा तारीफ के पात्र हैं। मेमने का एनकाउंटर कर बर्बर शेर की खातिरदारी हो रही है और पाटील हर मौके पर कानून-व्यवस्था का गुणगान करने से बाज नहीं आते...अब राज ठाकरे की कल की प्रेस कांफ्रेंस को ही लें जिसमें वो बड़ी विनम्रता के साथ बखान कर रहे हैं कि छठ पूजा को लेकर कोई विरोध नहीं...लोग पूजा करें वो कोई विघ्न नहीं डालेंगे....लेकिन लाख टके का सवाल ये है राज साहेब कि ये लाइसेंस आपको किसने दिया कि आप किसे पूजा करने दें किसे नहीं! यहां ये भी बताना लाजिमी होगा कि राज ठाकरे की प्रेस कांफ्रेंस पर कोर्ट की पाबंदी लगी हुई है...फिर भी उन्हें पुलिस की ओर से छूट दी गई औऱ प्रेस कांफ्रेंस की इजाजत मिली...
ऐसे में क्या ये मान लिया जाए कि हमारी संवेदनाएं जहां खत्म होती हैं सियासत वहीं से शुरू होती है...या उलटकर कहें तो राजनीति जहां शुरू होती है वहां भावनाएं खत्म हो जाती हैं...खैर ये नतीजा हमें आपको सबको मिलकर निकालना है....फिलहाल तो ये सियासत बंद गली के आखिरी मकान की तरह है जिसमें बेदर्द हाकिमों के आगे आम आदमी की फरियाद नक्कारखाने में तूती से ज्यादा बिसात नहीं रखती...

Friday, October 31, 2008

बड़ा बेदर्द पेशा है, इसमें कोई साझीदार नहीं!

वो खबर आंखों के आगे से किसी भी आम खबर की तरह गुजर जाती...लेकिन ऐसा नहीं था...जिंदगी के चंद बरस साथ काम किया था...एक ही दफ्तर में आना जाना...चंद डेस्कों का फासला...लेकिन ये फासला अक्सर मिट जाया करता...जब हम किसी बात पर मजाक करते...गपियाते...हंसते-बोलते....किसी मुद्दे पर किसी की धज्जियां उड़ाते....लेकिन अचानक वो मनहूस खबर आंखों के आगे से गुजरी तो अंदर तक हिल गया...हां, दीवाली के दिन ही तो नज़र पड़ी थी उस खबर पर...पल भर के लिए यकीन नहीं हुआ...खबर थी एक पत्रकार के असमय निधन की...शैलेंद्र प्रसाद...दिल्ली के एक अखबार में सालों से काम कर रहे थे....जिन लोगों ने उन्हें देखा था...साथ काम किया था...वो उनका मुस्कुराता चेहरा कभी नहीं भूल सकते...वही शैलेंद्र जी अब हमारे बीच नहीं हैं...फिर दूसरी खबर ये भी सामने आई कि उनके अंतिम संस्कार के वक्त उस अखबार का कोई भी बड़ा नाम मौजूद नहीं था...जिस अखबार के लिए शैलेंद्र जी ने सालों खून पसीना बहाया...जिसके लिए जिंदगी के कई साल खाक किए....जाड़े-गर्मी की परवाह नहीं की....
दरअसल आप पाठक हैं तो अखबारों और पत्रकारों की ताकत के तमाम किस्से सुनते हैं...लेकिन बाहर से चमत्कारी औऱ तिलिस्मी दिखने वाली इस दुनिया के कई अंधेरे कोने हैं...कई अंधी सुरंगें हैं...बिचौलियों की एक पूरी लॉबी है जो मालिकान के इर्द गिर्द कुंडली जमाए बैठी रहती है...जिनकी वजह से आम पत्रकारों की आवाज कभी नहीं सुनी जाती...ये व्यवस्था अभी से नहीं सालों से हिंदी अखबारों को खाए जा रही है...ऐसा नहीं कि सारे अखबारों का यही हाल है...लेकिन बड़े अफसोस के साथ कहना चाहूंगा कि हिंदी पट्टी के ज्यादातर अखबारों को ये घुन बरसों से खाए जा रहा है...संपादक दिन-ब-दिन मालिक से भी अमीर होता जा रहा है....जबकि आम पत्रकार का बुरा हाल है...वो पत्रकार है...तो हौसला उसके अंदर जरूर होगा...वो आपके सामने रोएगा-गिड़गिड़ाएगा नहीं ये भी सच है...लेकिन उसकी माली हालत की भी जरा सोचिए...ये भी सोचिए कि एक दिन जब वो चल बसेगा तो उसकी मौत पर आंसू बहाने भी अखबार से कोई नहीं आएगा...जो अखबार करीना और बिपाशा के किस्सों से पन्ने-दर-पन्ने रंग देते हैं उन अखबारो में इतनी भी जगह नहीं होगी कि किसी पन्ने पर चौदह प्वाइंट में ही सही पर ये खबर छाप दी जाए कि उसका एक कर्मचारी अब नहीं रहा...वाकई इस पथभ्रष्ट दौर में अब किसी अखबार से आप इतनी भी सहानुभूति की उम्मीद नहीं रख सकते....
और शैलेंद्र जी के साथ भी यही हुआ...
दुख की इस घड़ी में पूरी आस्था के साथ बस यही प्रार्थना है कि ईश्वर उनके परिवार को हौसला दे....पीड़ा सहने की शक्ति दे...आमीन

Thursday, October 30, 2008

हत्यारे दौर में अब किसी को नाम मत बताना !

जिन लोकल ट्रेनों को मुंबई की लाइफ लाइन कहा जाता है...वही लाइफलाइन धर्मदेव के लिए डेथ वारंट लेकर आई...बड़े अरमानों के साथ धर्मदेव ने खोपोली से लोकल पकड़ी होगी...पहले कुर्ला औऱ फिर गोरखपुर के लिए ट्रेन पकड़नी थी...पर्व के मौके पर जा रहा था...जाहिर है सभी के लिए कुछ ना कुछ तोहफे रहे होंगे...१४ महीने की बिटिया के लिए गुड़िया भी खरीदी होगी...बुजुर्ग मां-बाप के लिए भी लिया होगा कुछ सामान....लेकिन सबकुछ बिखर गया...नाम और पता बताना उसके लिए जिंदगी की सबसे महंगी औऱ जानलेवा भूल साबित हुई....ये धर्मदेव के लिए इतना बड़ा अपराध साबित हुआ कि अंधेरी हल्की सर्द हो चली रात में उन गुंडों ने उसपर ताबड़तोड़ वार किए और फिर जो हुआ वो आप सबके सामने है...
धर्मदेव के परिवारवाले जिंदगी में कभी इस दर्द से शायद ही उबर पाएं...उसकी नन्ही बिटिया का इंतजार भी अब कभी खत्म नहीं होगा....उसके भाई...नातेदार...रिश्तेदार....सब को जो जख्म मिले हैं उसे भरने के लिए कोई मरहम काफी नहीं होगा....
जांचें होती रहेंगी...कानून अपना काम करता रहेगा....मुंबई की लोकल ट्रेनें भी अपनी रफ्तार से दौड़ती रहेंगी....वो ट्रेन भी नहीं थमेगी जिसपर धर्मदेव ने जिंदगी का आखिरी सफर तय किया...लेकिन क्या वाकई सबकुछ पहले जैसा ही होगा...?? जवाब है शायद नहीं....दरअसल ये घटना महज घटना नहीं बल्कि गवाह है एक भरे-पूरे दौर के हत्यारा बन जाने का...दस्तावेज है सियासत की भेंट चढ़ती जिंदगियों का...ये घातक होती राजनीति के क्रूर नतीजों की ओर इशारा है....
ऐसे में क्या आप भी अगली बार मुंबई में ट्रेन से गुजर रहे हों औऱ कोई पूछे कि आपका नाम क्या है...? तो क्या आप नाम बताएंगे! पूछे कि आप कहां के रहने वाले हैं...तो उसे ये जवाब देना चाहेंगे कि आप यूपी या बिहार के अमुक जिले के अमुक शहर से हैं....
वाकई हत्यारा दौर है भाई...नाम बताना तो सोच-समझकर बताना

Tuesday, October 28, 2008

इस पगलाई व्यवस्था में किसी का बचना मुश्किल है!

राहुल राज...एक ऐसा लड़का जिसे हम आप कल से पहले तक नहीं जानते थे...जो पटना से बोरिया-बिस्तर उठाए दो वक्त की रोटी के जुगाड़ में मुंबई पहुंचा...कभी नहीं लौटने के लिए...उसी राहुल राज का चेहरा अब भी आंखों के सामने कौंध रहा है...बेस्ट की डबल डेकर बस की खिड़की से झांकता...डरा सहमा...हाथों में पिस्तौल...(पता नहीं नकली थी या असली!) बदहवास राहुल राज...रूट नंबर ३३२ की बस में कभी इस खिड़की को बंद करता तो कभी चिल्ला चिल्ला कर अपनी बात कहने की कोशिश करता....लेकिन तब तक देर हो चुकी थी...क्योंकि खतरा बड़ा था....लिहाजा उसका एनकाउंटर कर दिया गया...३३२ नंबर की बस में जिंदगी और मौत की इस खींचतान में सबकुछ कुछ मिनटों के भीतर खत्म हो गया....अंदर थी राहुल राज की लाश...औऱ बाहर जश्न मनाती पुलिस....फिर महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटील का फिल्मी बयान...गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा...जिंदगी-मौत के इस पूरे ड्रामे में कुछ सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब अभी महाराष्ट्र सरकार औऱ पुलिस दोनों को देना बाकी है....क्या राहुल राज को जिंदा नहीं पकड़ा जा सकता था....क्या ये कारगर नहीं होता कि उसे बातों में उलझाए रखा जाता और फिर उसे काबू में करने की कोशिश की जाती....क्या हमारी पुलिस एक हार्डकोर क्रिमिनल औऱ अचानक जज्बाती हो गए एक लड़के में कोई फर्क नहीं समझती....राहुल राज कोई आतंकवादी नहीं था...उसके घरवालों, दोस्तों-करीबियों, पटना में उसके इलाके की पुलिस सभी के बयान इसी की तस्दीक करते हैं... मेरा ये कतई मतलब नहीं कि राहुल ने जो तरीका अपनाया उसे सही साबित करूं...बल्कि यहां जरूरी ये है कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया....इसके पीछे की वजह क्या है...इसके लिए आपको थोड़ा पीछे जाना होगा....मुंबई के उस मंजर को याद करना होगा जब एमएनएस के गुंडे उत्तर भारतीय छात्रों को खदेड़ खदेड़ कर मार रहे थे...परीक्षा हॉल से खदेड़ रहे थे औऱ स्टेशनों पर पीट रहे थे....टीवी पर हर छोटी बड़ी खबर को ब्रेकिंग न्यूज बनाने के इस दौर में ये तस्वीरें भी चौबीसों घंटे दिखाई जाती रहीं...इन तस्वीरों को देखकर बिहार में जो प्रतिक्रिया हुई वो भी आप सब के सामने है...ऐसे में हो सकता है कोई बेरोजगार बहक जाए...उसकी भावनाओं पर असर पड़े...उसके दिलो-दिमाग में नफरत का ज़हर भर जाए...उसकी दिमागी हालत का अंदाजा लगाइये...सबकुछ साफ हो जाएगा...लेकिन संवेदनहीन होते इस दौर में इसकी फिक्र कौन करता है....किसे मतलब है कि कौन जिंदा है...कौन मर गया....ऐसे में मुंबई जैसे महानगर में एक दिन किसी बस पर सवार कोई नौजवान अगर राज ठाकरे को चीख-चीखकर चुनौती देने लगे...हवा में तमंचा लहराने लगे....तो ये मत समझिएगा कि वो आतंकवादी है...वो अपराधी है....दरअसल ये खोट इस पगलाए हुए दौर का है जिसमें किसका सिर कब फिर जाए कहना मुश्किल है...जिसमें नियति कब किसको राहुल राज बना दे...कहना मुश्किल है...

Saturday, October 25, 2008

...फिर नींद रात भर क्यूं नहीं आती!

सपने, बाइक और सी-१३ का आखिरी कमरा
नींद से नींद का सफर कैसा होता है...ये कोई अन्नू बाबू से सीखे...सोने से प्रिय कुछ भी नहीं...शायद इसलिए कि सपनों से उन्हें बहुत लगाव था....लेकिन सपने, बाइक और सी-१३ के आखिरी कमरे में ही जिंदगी तो नहीं चलती...अखबार के तहखाने में हाजिरी भी लगानी तो पेट के लिए जरूरी थी....

तहखाने में चापलूसी, चापलूसों में अन्नू बाबू....
भाई साहबी पत्रकारिता के दिन....न्यूजरूम नुमा तहखाना...अमूमन किसी छोटे मोटे कारखाने की तरह नज़र आता....जहां एक कोने में बैठा बॉस रूपी सुपरवाइजर लगातार जुगाली करता रहता....मोटे चश्मे से झांकती आंखें अखबारो में कुछ तलाशतीं...वो खीझता...अरे यार क्या हेडिंग लगा दी...गजब की सूंघने की शक्ति पाई थी उसने...पता नहीं उसे कैसे आभास हो जाता कि ये काम अन्नू बाबू का ही है....फिर क्या था....टेबल के इस पार खड़े होकर अन्नू बाबू को देर तक प्रवचन सुनना पड़ता....लेकिन जरा ठहरिए ये मत सोचिएगा कि वो बॉस वाकई अन्नू बाबू को लेकर बेहद क्रूर था...खुद अन्नू बाबू ने एक बार दोस्तों के सामने गवाही देते हुए कहा था कि बॉस तो उन्हें बेहद मानता है...लेकिन क्या करोगे भाई नौकरी की भी तो अपनी मजबूरी होती है...(यहां सूत्रधार ये साफ करना चाहेगा कि जिस बॉस का वर्णन हो रहा है वो किसी खास व्यक्ति की ओर इंगित नहीं है...बल्कि अखबारों में तो ये परंपरा सालों से परवान चढ़ रही है...) जैसा कि आपने अभी जान लिया कि बॉस अन्नू बाबू को फटकारता जरूर था लेकिन उसे मानता भी था...तब सवाल ये उठता है कि आखिर अन्नू बाबू मात कहां खा जाते थे....तो इसके लिए अब वापस लौटते हैं भाई साहबी पत्रकारिता के उन सुनहरे दिनों की ओर.....तहखाने में तब बड़ा कॉमन था....बॉस के तमाम करीबी जमकर भाई साहब को मक्खन लगाते...अरे भाई साहब आपने क्या हेडिंग लगाई....तो कोई दो कदम आगे रहने की स्टाइल में बोल पड़ता ...भाई साहब आपकी कमीज तो बड़ी शानदार लग रही है...कोई भाई साहब को पुराने दिनों की याद दिलाता...न्यूज रूम को ये अहसास कराता कि भाई साहब तो बड़े महान पत्रकार हैं....उनकी रिपोर्ट पर कितना हंगामा हुआ था...सरकारें कैसे हिल गई थीं...प्रशासन कैसे थर-थर कांपता था....महिमामंडन का ये वो दौर था जिसमें अन्नू बाबू भीड़ में शामिल जरूर दिखते ...लेकिन अंदर ही अंदर एक बेचैनी उनमें उबाल मार रही होती.....तो क्या इस बेचैनी में भी कभी उफान आता है...
ये जरूर बताएंगे...लेकिन सूत्रधार जॉन डीकोस्टा को फिलहाल दीजिए इजाजत

जॉन डीकोस्टा की डायरी, पृष्ठ संख्या-5

Friday, October 24, 2008

गतांक से आगे...


अबतक आपने पढ़ा-एक खत अचानक मिलता है...उस सुबह...सी-१३ के दरवाजे पर
अब आगे...अलसाई भीगी औऱ सीली सुबह का मोह छोड़कर...लिहाफों की गरमाहट से बाहर निकलकर हॉट डिस्कशन का दौर शुरू....कुछ वाकई चिंतित तो कुछ के मन में बस ये चिंता सता रही थी कि आखिर अन्नू बाबू ने इस तरह झटके में अलविदा कैसे कह दिया...तो एक दो की चिंता ये भी थी कि अन्नू बाबू ने अपना इस महीने का शेयर नहीं दिया...शेयर बोले तो किराये में हिस्सेदारी...मेस का खर्च...जो लोग उनके खाने खर्चे की चिंता कर रहे थे वे गुस्से में भी थे...ये अन्नू बाबू ने ठीक नहीं किया....खैर उस सुबह और भी बहुत कुछ हुआ...लेकिन ये कहानी फिर सही...सूत्रधार जॉन डीकोस्टा की डायरी के कई पन्ने उसी सुबह की कहानी से रंगे हुए हैं॥
फ्लैशबैक---अन्नू बाबू किस दुनिया के जीव थे...क्या अंतरिक्ष के वाशिंदे थे...क्या उनकी अपनी अलग कोई सल्तनत थी...या फिर थी कोई औऱ कहानी....
खुद अन्नू बाबू ने बताया था...छोटी मोटी रियासत से आते हैं....वो रियासत जो अब लुटपिट चुकी है....परिवार के नाम पर हमेशा खामोश रहे....हम सबके सामने उनकी निजी जिंदगी का परदा एक बार बेहद झन्नाटेदार तरीके से उठा था....जिंदगी के कुछ पन्ने खुले थे....लेकिन हममें से किसी ने तब उनको कुरेदा नहीं था.....पहले उस अखबार में लौटते हैं जहां तहखाने में अन्नू बाबू खबरों की भीड़ में गुम हो जाते थे....वो तहखाना आज भी वहां मौजूद है....साथी पत्रकारों से गुलजार...डेडलाइन की मारामारी...और बॉस का डंडा....थके पस्त चौदहवीं शताब्दी के कंप्यूटरों में जूझते अन्नू बाबू...ऐसी निर्मम भीड़ से घिरे अन्नू बाबू जहां हर दूसरा आदमी खुद को तुर्रम खां से कम नहीं समझता...अपनी विद्वता पर गर्व से सीना चौड़ाकर घूमने वालों की भीड़, जिनकी नज़र में सामने वाला किसी बेवकूफ से कम नहीं....सबकी यही शिकायत यहां तो क्रिएटिविटी ही नहीं है.....ऊपर से वो बॉस....जो दोपहर से ही तहखाने में ऐसे जमता कि उठने का नाम नहीं लेता....हां ऑफिस आने से पहले पान मसाले की लड़ी लेना नहीं भूलता...मसाला चबाते चबाते जीभ तो मोटी हो ही गई थी...अक्ल का भी कुछ यही हाल था....और पता नहीं क्यों अन्नू बाबू हमेशा उसकी टार्गेट में होते थे...बाद में सुना वो बॉस बहुत बड़ा बॉस गया और एक अखबार का यूनिट हेड (बोले तो स्थानीय संपादक)...सच पूछिए तो जिंदगी के उस दौर में अन्नू बाबू को अपने दुखों की सबसे बड़ी वजह वो स्थानीय संपादक ही नज़र आता था....
जॉन डीकोस्टा की डायरी-पृष्ठ संख्या-4

Wednesday, October 22, 2008

जब आया आखिरी खत


उस रोज भी हमेशा की तरह सूरज निकला....जाड़े की सुबह...बादलों से ढंका आसमान...गीली सर्द सुबह......रात भर झमाझम बारिश हुई...बाहर भीगती रही अन्नू बाबू की बाइक...नालों में पानी भर गया था...पेड़ जो मुहल्ले में थोड़े बहुत बच गए थे उनमें से दो तीन अपन के अहाते में भी थे....वे सब भी अहसास दिला रहे थे कि वाकई रात किस तरह से बरसती रही है....पानी पानी जमीन...बादल बादल आसमान....

चौराहे तक सिगरेट लाने जाते भी तो कैसे...दूसरे कमरे में सो रहे दोस्तों की सिगरेट से काम चलाने की जुगत की...लेकिन अफसोस....सारी सिगरेटें रात की बहस में धुआं हो चुकी थीं.....रजाई से निकलना भी मुश्किल....बाहर जाने की कौन कहे....

हां...तभी वो पोस्टकार्ड आया...आया नहीं बल्कि यूं कहें कल ही पहुंच चुका था किसी की नजर नहीं पड़ी आते जाते पैरों से अनायास दबे कुचले पोस्टकार्ड की क्या बिसात....

डॉक्टर साहब भी जग चुके थे...हम पांच में सबसे सात्विक...इतने साधु कि सिगरेट पीने का मतलब कैरेक्टर लेस होने से कम नहीं...औऱ एक-आध पैग लगा ली फिर तो उनकी नज़र में आपसे अधम दुनिया में कोई नहीं...

डॉक्टर साहब चश्मा पहन चुके थे...पोस्टकार्ड को गौर से उलट पलट कर देखा....और चिकोटी काटकर अपने रूम सखा को जगाया..अजी देखिए...ये अन्नू बाबू हैं ना बड़े गजब हैं भाई....अरे उठिए ना...देखिए तो सही क्या चिट्ठी भेजे हैं....

चिट्ठी का मजमून

सी-13 के साथियों

अब तक गुरु की तलाश में था...लगता है अपन को गुरु मिल गए हैं...उम्मीद है तुम सभी को मेरी कमी खलेगी....

बस इतना ही...

जॉन डिकोस्टा की डायरी-पृष्ठ संख्या-3

Tuesday, October 21, 2008

इस कहानी में कई मोड़ हैं

यादों के गलियारों में टहलना कई बार खुद के लिए टीस भरे सुखद अहसास की तरह होता है तो दूसरों के लिए झल्लाहट.....लेकिन ब्लॉग के दोस्तों को बता दूं कि अन्नू बाबू न तो टीस भरे अहसास हैं औऱ न ही उन्हें जानना आपके लिए झल्लाहट भरे तजुर्बे सा साबित होगा...खैर ये कहानी फिर सही....वापस अन्नू बाबू की जिंदगानी पर लौटते हैं.....एक ऐसी कहानी पर लौटते हैं जो अभी अधूरी है...जिसका पूरा होना अभी बाकी है.....
पहले किरदारों का परिचय
अन्नू बाबू सपने देखते थे....सोते...जागते...दफ्तर में काम करते....खबरनवीसी में सालों से थे...कलाकार थे...पेंटिंग करते थे...मूर्तियां गढ़ते थे...जिंदगी में रंग ही रंग...कब किस बात पर भावुक हो जाएं कहना मुश्किल...कब किस पर उखड़ जाएं...और बिफर पड़ें....ये समझना हम जैसे उनके साथियों के लिए भी आसान नहीं था....वो साथी जो उस अखबार के दफ्तर से एक किलोमीटर की दूरी पर साथ रहते थे...साथ खाते थे....साथ पीते थे....(सभी नहीं....दो तीन)और बुद्धिविलास की नौबत आई तो साथ झगड़ते थे...लेकिन रहते सभी उसी मकान में एक छत के नीचे थे...जो मकान आज भी गोल चक्कर के पास है जो तब हुआ करता था...उस मकान में गेट के अंदर दरवाजे के बाहर अन्नू बाबू की बाइक खड़ी रहती थी...अंदर सिगरेट के धुएं के बीच सपने बुने जाते थे...कहानियों के किरदार ढूंढ़े जाते थे....कविताओं की प्रेरणा तलाशी जाती थी....अखबारों का व्याकरण तय होता था...सबकुछ होता था...रात को एडिशन छोड़कर सभी लोग घर लौटते तब बहस शुरू होती...अब ये अन्नू बाबू की किस्मत का खेल कहिए...या उनकी कुंडली का सर्पदोष....अमूमन होता ये कि बहस में अन्नू बाबू एक तरह और बाकी लोग एक तरफ....लेकिन अन्नू बाबू भी ठहरे ठेठ कनपुरिया (हालांकि वो मूल रूप से कानपुर के नहीं थे....लेकिन उस शहर से भी सालों नाता रहा)...हार कभी नहीं मानते....हमेशा की तरह बहस बेनतीजा खत्म होती...हमेशा की तरह सभी साथ खाना खाते....लेकिन खाते वक्त अन्नू बाबू की थाली पर कुछेक घूरती, आड़ी तिरछी निगाहें भी होतीं...अन्नू बाबू की थाली पर ही क्यों होतीं...और आड़ी तिरछी ही क्यों होतीं (ये सबकुछ सूत्रधार जॉन डीकोस्टा आपको डायरी के अगले पन्नों पर बताएंगे)...फिर बहस का एक दौर चलता औऱ फिर सिगरेट का एक राउंड चलता...लेकिन तब तक अन्नू बाबू के पक्ष में भी कुछेक उठ खड़े होते...और बहस का सिलसिला औऱ तेज़ हो जाता....
तब अचानक अन्नू बाबू उठते...आखिर के कमरे में कोने पर पहुंचते...लाइट जलाने की नौबत आती तो ठीक है नहीं तो अंदाजे से एक कोने में जा लुढ़कते....वैसे उनका अंदाजा बिल्कुल दुरुस्त था....(सिर्फ एक बार गड़बड़ाया था..सोकर उठे थे औऱ शीशे की ग्लास पर पैर पड़ गया था....भारी भरकम वजन के आगे ग्लास की क्या बिसात....शीशे से अन्नू बाबू का पैर लहूलुहान हो गया था...तब हम ही लोग आनन-फानन में उन्हें एक डॉक्टर के यहां ले गए थे.....)
जॉन डीकोस्टा की डायरी-पृष्ठ संख्या 2

Tuesday, October 14, 2008

जॉन डीकोस्टा की डायरी

पूरे आठ साल बीत चुके हैं...अब पहले जैसा कुछ कहां रहा...दरो दीवार...आस पड़ोस...गली मुहल्ले...शायद सब कुछ बदल गए....लेकिन जरा ठहरिए...इस नतीजे पर पहुंचना हो सकता है आपकी जल्दबाज़ी हो...क्योंकि वो मकान अब भी उसका इंतजार कर रहा है...उसकी मोटरसाइकिल भी तो वहीं पड़ी धूल खा रही है...अंदर तीन कमरे हैं...तीसरा और आखिर का कमरा उसका...जिसमें कोने में पड़ा उसका बिस्तर बेतरतीबी से गोल पड़ा रखा है...कहीं ऐसा तो नहीं अन्नू बाबू अचानक आ गए हैं!...हमेशा की तरह चुपचाप...बगैर किसी को बताए...डॉक्टर साहब की डांट की परवाह किए बिना...रोटी पर घी चपोरा...जितनी जल्दी परोसा...उतनी जल्दी पेट के हवाले किया...और फिर चुपचाप..फर्श पर बिस्तर बिछाने की जहमत उठाए बिना लंबलेट हो गए...क्या वाकई ऐसा ही हुआ है...या फिर ये सब सपना है....अगर ये सपना है तो फिर ये आवाज किसकी है...जो चिहुंकती हुई सी बोल रही है...स्टाइल भी बिल्कुल वैसा ही....आठ साल पहले जैसा...क्या बोल रहे हैं अन्नू बाबू...अरे य़ार बहुत थक गया था...सोचा थोड़ी नींद ले लूं....
जॉन डीकोस्टा की डायरी...पृष्ठ संख्या-1