Tuesday, November 18, 2008

उस शहर में मेरा घर भी था...

उस साल दिल्ली में जाड़े ने सबको कंपकपा दिया था...पीली बीमार सी धूप...मोटे लबादे भी बेअसर ....तभी एक रोज दिसबंर के महीने में नई दिल्ली स्टेशन पर अकबकाया सा एक ट्रेन से उतरा था...बेशुमार भीड़ में कहीं खोया सा...भीड़ के रेले के साथ साथ हो लिया....बाहर निकला तो पाया कि ये अजमेरी गेट है....जुबान बदली हुई...लोगों के अंदाज बदले हुए....दोपहर का सूरज पूरी तरह परवान नहीं चढ़ा था....उचटती निगाहों से सबकुछ समझने का भाव चेहरे पर ओढ़े हुए मिंटो रोड पहुंचा और फिर वहां से साकेत की ५०१ नंबर की बस पकड़ ली...पास में एक एयरबैग जो अब भी घर के किसी कोने में पड़ा धूल खा रहा है...साकेत को लेकर कई किस्से थे...पॉश कॉलोनी है....बड़ी इमारतें हैं....सबकुछ हाईप्रोफाइल...अपमार्केट....लेकिन मेरी बस यात्रा खत्म होने के साथ ही शुरू हो गया सपनों की रंगीन दुनिया के बिखरने का सिलसिला....मालूम चला कि पुष्प विहार में रहना है जोकि साकेत इलाके से सटा हुआ है....सरकारी बाबुओं की कॉलोनी है...उसी में टाइप वन के एक क्वार्टर में दूर के रिश्तेदार के पास रूकना था...जिन सज्जन के साथ रुकने का इंतजाम था वो खुद वहां एक कमरे में किराये पर रह रहे थे....पहुंचते ही ज्ञान देने का सिलसिला शुरू हो गया....इस शहर में कोई किसी का नहीं है...काम से काम रखा जाता है....अपना रास्ता खुद तलाशना होगा....बेशर्म बनना होगा...मुझसे भी कोई उम्मीद नहीं रखना...ये सब तुमको स्मार्ट बनाने के लिए बोल रहा हूं....और आखिरी वाक्य...जल्दी से अपना कोई इंतजाम भी कर लो.....हालांकि तब उनकी बातें बहुत रुखी लगी थीं....लेकिन आज इतने बरस गुजर जाने के बाद लगता है कि इस शहर में वो बातें तब भी सही थीं और शायद आज भी....
जिंदगी के कई फंडों की घुट्टी पिलाई गई....वैसे वे फंडे तब काम के नहीं मालूम पड़ते थे....लेकिन अब लगता है कि वाकई उनमें बहुत दम था....एक फंडा था...कोई काम ना भी हो तो बस से घूमकर आ जाओ...कुछ नहीं तो कनाट प्लेस में ही जाकर भटक आओ....तो कभी अखबारों में नौकरियों वाले इश्तेहारों को देखने की सलाह देते...और किसी किसी दिन तो जबरदस्ती वॉक-इन इंटरव्यू के लिए मुझे ठेलकर भेज भी देते.....इस पूरी कवायद का इतना फायदा तो जरूर हुआ कि अजनबी से इस शहर को मैं थोड़ा थोड़ा जानने लगा...
खाने-पीने के तौर तरीके सीखे...ढाबों में बटर के साथ रोटी और अंडे की भुज्जी और दाल फ्राइ का सलीका सीखा....
ठंड के उन दिनों में शामें कई बार उदास होती थीं....धुंधली सी ढलती ढामों में कई बार जीने का मतलब समझ में नहीं आता था....तब एक अदद घर की तलाश थी....
फिर पता चला कि कुछ पुराने दोस्त हैं जो पुरानी दिल्ली की एक गली में घर किराये पर लेकर रहते हैं....मैं भी एक रोज अपना बोरिया बिस्तर उठाकर उसी गली में पहुंच गया....उसी गली का नाम था गली करतार सिंह.....
जिंदगी में अभी कई मोड़ आने बाकी थे....गली करतार की अपनी जिंदगी थी...अपने उसूल थे....लेकिन ये किस्सा फिर कभी.....

Monday, November 17, 2008

उसे भूलने की दुआ करो!

चमकती दमकती दुनिया का ये वो कड़वा सच है जिसका दर्द दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों में कभी भी महसूस किया जा सकता है...आपके सामने से बेहद परिचित सा चेहरा गुजर रहा है...लेकिन उसकी निगाह मे एक अजीब सा अजनबीपन है...एक सर्द सा अहसास....वो आपको पहचान रहा है...लेकिन फिर भी अनजान है....भई उसकी अब हैसियत हो गई है...बड़ी कार पर घूमता है...बच्चे महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं औऱ उसकी बीवी भी अब अंग्रेजी बोलने लगी है....कभी किसी पॉश कॉलोनी के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में टकरा जाए तो उससे ये उम्मीद मत रखिएगा...कि वो आपको तपाक से लगे लगा लेगा...किसी मॉल में सामने से आ रहा हो तो गनीमत इसी में है कि आप किसी बगल की दुकान में शोकेस पर रखी चौंधियाती चीजें देखने लगें...लेकिन फिर भी नजर मिल गई...और आप हंस दिए....तो गए काम से...क्योंकि उसकी आंखों का अजनबीपन आपको भीतर तक चीर कर रख देगा...
दोस्तों ये समय वाकई त्रासद है...यहां कई बार आपको जीने के ऐसे ही मौके मिलेंगे....लोगों की ऐसी ही बर्फीली निगाहों का सामना करना पड़ेगा....क्योंकि इस शहर में सबकी कुछ ना कुछ हैसियत है...और हर अगला अपने आप में किसी तोप से कम नहीं....तो फिर हमारे-आपके लिए सही क्या है...सही तो खैर नहीं मालूम...लेकिन हो सके तो चढ़ती ठंड के इन दिनों में छत पर गुनगुनी धूप में दरी या चटाई पर लेटकर मजे से पढ़िए (अगर आप छुट्टियों में हों) औऱ याद कीजिए बशीर बद्र की उन नायाब लाइनों को--जिसमें बशीर साहब फरमाते हैं---तुम्हे जिसने दिल से भुला दिया उसे भूलने की दुआ करो....

Saturday, November 1, 2008

बंद गली का आखिरी मकान!

अक्सर सियासत से जुड़े लोगों की शिकायत होती है कि चाहे मसला कुछ भी हो सारा दोष उनपर मढ़ दिया जाता है। हो सकता है एक-आध मामले में उनकी आपत्ति वाजिब हो...लेकिन ज्यादातर मामलों में नहीं....मराठी मानुष के बहाने सियासत का कोड़ा फटकार रहे राज ठाकरे औऱ हाल के दिनों की कई घटनाओं पर गौर करें तो तस्वीर साफ हो जाएगी। मुंबई जब जल रही होती है तब न तो केंद्र सरकार फिक्र करती है औऱ ना ही राज्य सरकार। उत्तर भारतीय हांके जा रहे होते हैं तो केंद्र से लेकर राज्य तक ऐसा कोई भी ठोस कदम उठाने की जरूरत नहीं समझी जाती जिससे लगे कि हां इस मुल्क में संविधान का राज है...कानून-व्यवस्था का आदर है...दिखाने के लिए राज ठाकरे की गिरफ्तारी होती है...औऱ शहीद का जामा देकर उन्हें पूरी इज्जत के साथ हीरो बनाकर वापस घर भेज दिया जाता है...जहां वीरों की तरह उनका स्वागत किया जाता है....जब इसी सियासत की भेंट चढ़े एक जवान बेटे की अर्थी पटना में उठ रही होती है तो दूर दिल्ली में नेता राजनीति की नूरा कुश्ती में ताल ठोंक रहे होते हैं...यहां कुसूर सिर्फ राज ठाकरे का नहीं है...ये पूरी की पूरी जमात ही कुछ ऐसी है...अब सबको पता है कि जिस विचारधारा की उपज राज ठाकरे हैं वो विचारधारा शिवसेना की है...शिवसेना यानी बीजेपी की साझीदार...उसी बीजेपी की साझा सरकार जेडी यू के साथ बिहार में चल रही है....लेकिन जेडी यू के नेता घड़ियाली आंसू बहाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं...अगर वाकई जेडी-यू महाराष्ट्र की घटनाओं से आहत है तो बीजेपी को शिवसेना से अलग होने के लिए क्यों नहीं कहती...और अगर बीजेपी शिवसेना से नाता नहीं तोड़ती तो वो अपने रिश्ते बीजेपी से खत्म क्यों नहीं कर लेती...बीजेपी राष्ट्रीय एकता की दुहाई देते नहीं थकती...लेकिन क्या मराठी अस्मिता के झंडाबरदारों की करतूतों पर उसके किसी भी लौहपुरुष माने जाने वाले नेता का सख्त बयान आया है? ये तमाम सवाल चुनाव के वक्त जनता जरूर पूछेगी...और तब नेताओं को जवाब देना भारी पड़ जाएगा...
केंद्र सरकार की बात करें....तो पहली बार पीएम मनमोहन सिंह की ओर से बयान कल आया...सरकार को इतने दिन गुजर जाने के बाद शायद मसले की गंभीरता का अहसास हुआ....लेकिन ये लेटलतीफी क्यों...आखिर आप केंद्र की गद्दी पर बैठे किस लिए हैं...जब आप कानून-व्यवस्था के एक मामूली से मसले को नहीं सुलझा सकते....तो भाड़ में जाए ऐसी व्यवस्था...
लेकिन सबसे ज्यादा शाबासी की हकदार तो माननीय विलासराव देशमुख की सरकार है...खासतौर से महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटील ज्यादा तारीफ के पात्र हैं। मेमने का एनकाउंटर कर बर्बर शेर की खातिरदारी हो रही है और पाटील हर मौके पर कानून-व्यवस्था का गुणगान करने से बाज नहीं आते...अब राज ठाकरे की कल की प्रेस कांफ्रेंस को ही लें जिसमें वो बड़ी विनम्रता के साथ बखान कर रहे हैं कि छठ पूजा को लेकर कोई विरोध नहीं...लोग पूजा करें वो कोई विघ्न नहीं डालेंगे....लेकिन लाख टके का सवाल ये है राज साहेब कि ये लाइसेंस आपको किसने दिया कि आप किसे पूजा करने दें किसे नहीं! यहां ये भी बताना लाजिमी होगा कि राज ठाकरे की प्रेस कांफ्रेंस पर कोर्ट की पाबंदी लगी हुई है...फिर भी उन्हें पुलिस की ओर से छूट दी गई औऱ प्रेस कांफ्रेंस की इजाजत मिली...
ऐसे में क्या ये मान लिया जाए कि हमारी संवेदनाएं जहां खत्म होती हैं सियासत वहीं से शुरू होती है...या उलटकर कहें तो राजनीति जहां शुरू होती है वहां भावनाएं खत्म हो जाती हैं...खैर ये नतीजा हमें आपको सबको मिलकर निकालना है....फिलहाल तो ये सियासत बंद गली के आखिरी मकान की तरह है जिसमें बेदर्द हाकिमों के आगे आम आदमी की फरियाद नक्कारखाने में तूती से ज्यादा बिसात नहीं रखती...