Tuesday, October 21, 2008

इस कहानी में कई मोड़ हैं

यादों के गलियारों में टहलना कई बार खुद के लिए टीस भरे सुखद अहसास की तरह होता है तो दूसरों के लिए झल्लाहट.....लेकिन ब्लॉग के दोस्तों को बता दूं कि अन्नू बाबू न तो टीस भरे अहसास हैं औऱ न ही उन्हें जानना आपके लिए झल्लाहट भरे तजुर्बे सा साबित होगा...खैर ये कहानी फिर सही....वापस अन्नू बाबू की जिंदगानी पर लौटते हैं.....एक ऐसी कहानी पर लौटते हैं जो अभी अधूरी है...जिसका पूरा होना अभी बाकी है.....
पहले किरदारों का परिचय
अन्नू बाबू सपने देखते थे....सोते...जागते...दफ्तर में काम करते....खबरनवीसी में सालों से थे...कलाकार थे...पेंटिंग करते थे...मूर्तियां गढ़ते थे...जिंदगी में रंग ही रंग...कब किस बात पर भावुक हो जाएं कहना मुश्किल...कब किस पर उखड़ जाएं...और बिफर पड़ें....ये समझना हम जैसे उनके साथियों के लिए भी आसान नहीं था....वो साथी जो उस अखबार के दफ्तर से एक किलोमीटर की दूरी पर साथ रहते थे...साथ खाते थे....साथ पीते थे....(सभी नहीं....दो तीन)और बुद्धिविलास की नौबत आई तो साथ झगड़ते थे...लेकिन रहते सभी उसी मकान में एक छत के नीचे थे...जो मकान आज भी गोल चक्कर के पास है जो तब हुआ करता था...उस मकान में गेट के अंदर दरवाजे के बाहर अन्नू बाबू की बाइक खड़ी रहती थी...अंदर सिगरेट के धुएं के बीच सपने बुने जाते थे...कहानियों के किरदार ढूंढ़े जाते थे....कविताओं की प्रेरणा तलाशी जाती थी....अखबारों का व्याकरण तय होता था...सबकुछ होता था...रात को एडिशन छोड़कर सभी लोग घर लौटते तब बहस शुरू होती...अब ये अन्नू बाबू की किस्मत का खेल कहिए...या उनकी कुंडली का सर्पदोष....अमूमन होता ये कि बहस में अन्नू बाबू एक तरह और बाकी लोग एक तरफ....लेकिन अन्नू बाबू भी ठहरे ठेठ कनपुरिया (हालांकि वो मूल रूप से कानपुर के नहीं थे....लेकिन उस शहर से भी सालों नाता रहा)...हार कभी नहीं मानते....हमेशा की तरह बहस बेनतीजा खत्म होती...हमेशा की तरह सभी साथ खाना खाते....लेकिन खाते वक्त अन्नू बाबू की थाली पर कुछेक घूरती, आड़ी तिरछी निगाहें भी होतीं...अन्नू बाबू की थाली पर ही क्यों होतीं...और आड़ी तिरछी ही क्यों होतीं (ये सबकुछ सूत्रधार जॉन डीकोस्टा आपको डायरी के अगले पन्नों पर बताएंगे)...फिर बहस का एक दौर चलता औऱ फिर सिगरेट का एक राउंड चलता...लेकिन तब तक अन्नू बाबू के पक्ष में भी कुछेक उठ खड़े होते...और बहस का सिलसिला औऱ तेज़ हो जाता....
तब अचानक अन्नू बाबू उठते...आखिर के कमरे में कोने पर पहुंचते...लाइट जलाने की नौबत आती तो ठीक है नहीं तो अंदाजे से एक कोने में जा लुढ़कते....वैसे उनका अंदाजा बिल्कुल दुरुस्त था....(सिर्फ एक बार गड़बड़ाया था..सोकर उठे थे औऱ शीशे की ग्लास पर पैर पड़ गया था....भारी भरकम वजन के आगे ग्लास की क्या बिसात....शीशे से अन्नू बाबू का पैर लहूलुहान हो गया था...तब हम ही लोग आनन-फानन में उन्हें एक डॉक्टर के यहां ले गए थे.....)
जॉन डीकोस्टा की डायरी-पृष्ठ संख्या 2

4 comments:

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

aji saheb mod to zindgi me hone hee chahiye

MANVINDER BHIMBER said...

ek khoobsurat ahsaas ka jikr kiya hai aapne

Anonymous said...

लगता है मंडल जी, पंत जी, बुले जी, संजीव बाबू के बारे में भी पढ़ने को मिलेगा।

मिहिर said...

किरदार हैं तो कहीं ना कहीं हमारे आसपास के ही हैं...लेकिन किसी खास व्यक्ति से इनका मेल खाना महज इत्तफाक भी हो सकता है