अबतक आपने पढ़ा-एक खत अचानक मिलता है...उस सुबह...सी-१३ के दरवाजे पर
अब आगे...अलसाई भीगी औऱ सीली सुबह का मोह छोड़कर...लिहाफों की गरमाहट से बाहर निकलकर हॉट डिस्कशन का दौर शुरू....कुछ वाकई चिंतित तो कुछ के मन में बस ये चिंता सता रही थी कि आखिर अन्नू बाबू ने इस तरह झटके में अलविदा कैसे कह दिया...तो एक दो की चिंता ये भी थी कि अन्नू बाबू ने अपना इस महीने का शेयर नहीं दिया...शेयर बोले तो किराये में हिस्सेदारी...मेस का खर्च...जो लोग उनके खाने खर्चे की चिंता कर रहे थे वे गुस्से में भी थे...ये अन्नू बाबू ने ठीक नहीं किया....खैर उस सुबह और भी बहुत कुछ हुआ...लेकिन ये कहानी फिर सही...सूत्रधार जॉन डीकोस्टा की डायरी के कई पन्ने उसी सुबह की कहानी से रंगे हुए हैं॥
फ्लैशबैक---अन्नू बाबू किस दुनिया के जीव थे...क्या अंतरिक्ष के वाशिंदे थे...क्या उनकी अपनी अलग कोई सल्तनत थी...या फिर थी कोई औऱ कहानी....
खुद अन्नू बाबू ने बताया था...छोटी मोटी रियासत से आते हैं....वो रियासत जो अब लुटपिट चुकी है....परिवार के नाम पर हमेशा खामोश रहे....हम सबके सामने उनकी निजी जिंदगी का परदा एक बार बेहद झन्नाटेदार तरीके से उठा था....जिंदगी के कुछ पन्ने खुले थे....लेकिन हममें से किसी ने तब उनको कुरेदा नहीं था.....पहले उस अखबार में लौटते हैं जहां तहखाने में अन्नू बाबू खबरों की भीड़ में गुम हो जाते थे....वो तहखाना आज भी वहां मौजूद है....साथी पत्रकारों से गुलजार...डेडलाइन की मारामारी...और बॉस का डंडा....थके पस्त चौदहवीं शताब्दी के कंप्यूटरों में जूझते अन्नू बाबू...ऐसी निर्मम भीड़ से घिरे अन्नू बाबू जहां हर दूसरा आदमी खुद को तुर्रम खां से कम नहीं समझता...अपनी विद्वता पर गर्व से सीना चौड़ाकर घूमने वालों की भीड़, जिनकी नज़र में सामने वाला किसी बेवकूफ से कम नहीं....सबकी यही शिकायत यहां तो क्रिएटिविटी ही नहीं है.....ऊपर से वो बॉस....जो दोपहर से ही तहखाने में ऐसे जमता कि उठने का नाम नहीं लेता....हां ऑफिस आने से पहले पान मसाले की लड़ी लेना नहीं भूलता...मसाला चबाते चबाते जीभ तो मोटी हो ही गई थी...अक्ल का भी कुछ यही हाल था....और पता नहीं क्यों अन्नू बाबू हमेशा उसकी टार्गेट में होते थे...बाद में सुना वो बॉस बहुत बड़ा बॉस गया और एक अखबार का यूनिट हेड (बोले तो स्थानीय संपादक)...सच पूछिए तो जिंदगी के उस दौर में अन्नू बाबू को अपने दुखों की सबसे बड़ी वजह वो स्थानीय संपादक ही नज़र आता था....
जॉन डीकोस्टा की डायरी-पृष्ठ संख्या-4
अब आगे...अलसाई भीगी औऱ सीली सुबह का मोह छोड़कर...लिहाफों की गरमाहट से बाहर निकलकर हॉट डिस्कशन का दौर शुरू....कुछ वाकई चिंतित तो कुछ के मन में बस ये चिंता सता रही थी कि आखिर अन्नू बाबू ने इस तरह झटके में अलविदा कैसे कह दिया...तो एक दो की चिंता ये भी थी कि अन्नू बाबू ने अपना इस महीने का शेयर नहीं दिया...शेयर बोले तो किराये में हिस्सेदारी...मेस का खर्च...जो लोग उनके खाने खर्चे की चिंता कर रहे थे वे गुस्से में भी थे...ये अन्नू बाबू ने ठीक नहीं किया....खैर उस सुबह और भी बहुत कुछ हुआ...लेकिन ये कहानी फिर सही...सूत्रधार जॉन डीकोस्टा की डायरी के कई पन्ने उसी सुबह की कहानी से रंगे हुए हैं॥
फ्लैशबैक---अन्नू बाबू किस दुनिया के जीव थे...क्या अंतरिक्ष के वाशिंदे थे...क्या उनकी अपनी अलग कोई सल्तनत थी...या फिर थी कोई औऱ कहानी....
खुद अन्नू बाबू ने बताया था...छोटी मोटी रियासत से आते हैं....वो रियासत जो अब लुटपिट चुकी है....परिवार के नाम पर हमेशा खामोश रहे....हम सबके सामने उनकी निजी जिंदगी का परदा एक बार बेहद झन्नाटेदार तरीके से उठा था....जिंदगी के कुछ पन्ने खुले थे....लेकिन हममें से किसी ने तब उनको कुरेदा नहीं था.....पहले उस अखबार में लौटते हैं जहां तहखाने में अन्नू बाबू खबरों की भीड़ में गुम हो जाते थे....वो तहखाना आज भी वहां मौजूद है....साथी पत्रकारों से गुलजार...डेडलाइन की मारामारी...और बॉस का डंडा....थके पस्त चौदहवीं शताब्दी के कंप्यूटरों में जूझते अन्नू बाबू...ऐसी निर्मम भीड़ से घिरे अन्नू बाबू जहां हर दूसरा आदमी खुद को तुर्रम खां से कम नहीं समझता...अपनी विद्वता पर गर्व से सीना चौड़ाकर घूमने वालों की भीड़, जिनकी नज़र में सामने वाला किसी बेवकूफ से कम नहीं....सबकी यही शिकायत यहां तो क्रिएटिविटी ही नहीं है.....ऊपर से वो बॉस....जो दोपहर से ही तहखाने में ऐसे जमता कि उठने का नाम नहीं लेता....हां ऑफिस आने से पहले पान मसाले की लड़ी लेना नहीं भूलता...मसाला चबाते चबाते जीभ तो मोटी हो ही गई थी...अक्ल का भी कुछ यही हाल था....और पता नहीं क्यों अन्नू बाबू हमेशा उसकी टार्गेट में होते थे...बाद में सुना वो बॉस बहुत बड़ा बॉस गया और एक अखबार का यूनिट हेड (बोले तो स्थानीय संपादक)...सच पूछिए तो जिंदगी के उस दौर में अन्नू बाबू को अपने दुखों की सबसे बड़ी वजह वो स्थानीय संपादक ही नज़र आता था....
जॉन डीकोस्टा की डायरी-पृष्ठ संख्या-4
3 comments:
अन्नू बाबू हैं कहां आजकल? बुंदेलखंड से कहीं से आये थे शायद। और वो अभिजीत, बाबा के प्रिय राजेंद्र तिवारी, स्नेहांशु रंजन, खबर बनाने की मशीन दीपक जी और वो टीवी से आये मोबाइल और कार वाले समाचार संपादक जी, सब कहां हैं भाई आजकल। इनका सबका डायरी में उल्लेख ना हो तो वैसे ही बता दीजियेगा।
हम पत्रकारिता में बहुत नए थे और आई.आई.एम.सी. के सीनियर्स से नज़दीकी बढ़ाने के चक्कर में रहते थे...डॉक्टर साहब ने मेरी कविता '616 आ जाए तो आई.आई.एम.सी चलें' आपको पढ़वाई थीं...आप लोगों ने तारीफ़ भी की सो हिचक ख़त्म हुई ... एक दिन सी-113 पहुंचा...दरवाज़ा शायद खटखटाने की ज़रूरत नहीं पड़ी थी ...खुला था...तीन कमरों का वो बड़ा सा घर अपने आकार से भी बड़ा ...(चटाई, धुआं और रेडियो घर को भरा-पूरा कहां बना पाते, वैसे भी आपने एक बार कहा था- क्या करना है बड़ा घर लेकर धो-पोंछकर चाटना है क्या?)...याद आते हैं आपके अन्नू बाबू भी...फ़र्स्ट इम्प्रेशन बड़ा ख़राब था...उनिंदे थे और खा रहे थे (दादी कहती थीं- अइसे खइबSSS तSSS मए खाना कुक्कुर के पेट में चल जाई...)..लेकिन 'तहखाने' में उनके साथ ही काम करता था इसलिए जल्द ही समझ गया आदमी वैसा नहीं है, जैसा मैंने समझा। बहुत सारी चीज़ें याद आ रही हैं, जिनका ज़िक्र कर 'गली करतार' को बोर करूंगा...लेकिन, बहुत शुक्रिया आठ साल पहले लौटाने के लिए...जब मेरी यादें इतनी सजीव हो रही हैं...तो 'डीकोस्टा की डायरी' पढ़कर उनका क्या हाल होगा जो इसके किरदार हैं...वैसे अन्नू बाबू आजकल हैं कहां?
पता चल गया, अभिजीत तो आजकल में ही दैनिक भास्कर में अफसर हो गये हैं भोपाल या दिल्ली में। अगली किस्त कहां है मिहिर बोस?
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