Saturday, September 12, 2015

यहाँ आयलान सोया है
ये दुनिया का सबसे बड़ा मातम है...ये दुनिया का सबसे गमगीन कर देने वाला मर्सिया है....ये इंसानियत की मौत की सबसे दर्दनाक तस्वीर है...ये भरोसे के दुनिया से उठ जाने का शोकगीत है.....
समंदर की लहरें मचल रही हैं या खून के आंसू रो रही हैं...समंदर खामोश बह रहा है या उसका कलेजा दर्द से चाक हो गया है..
पता नहीं क्या हो रहा है...लेकिन आज ये समंदर आंसुओं का बन गया है...समंदर के खारेपन में आंसुओं का नमक घुल गया है
आज नन्हा आयलान कुर्दी...यहां चैन की नींद सो रहा है...हमेशा के लिए सो गया है तीन साल का मासूम...नफरत की दुनिया को छोड़कर फरिश्तों की दुनिया में चला गया है...
आयलन को नहीं मालूम कि मुल्कों की सरहदें इस कदर बेरहम बन जाएंगी कि मुल्क दर मुल्क भटकता हुआ वो इस कदर इस समंदर की पछाड़ खाती लहरों के आगे सो जाएगा...जैसे दिन भर खेलकूद कर थका बच्चा मासूमियत से मां की आगोश में सो जाता है....आयलान का कोई मुल्क नहीं हो सका ...एक अनजान मुल्क में समंदर ही उसकी मां बन गया औऱ समंदर ही पिता...रहने के लिए चार गज जमीन नहीं मिली...समंदर ने उसे अपने दामन में पनाह दी...तीन साल के आयलान को भला मालूम भी क्या होगा...तोतली जुबान से सिर्फ पापा औऱ अम्मी का नाम ही तो मुश्किल से ले पाता होगा...उसी आयलान को एक अनजाने मुल्क में छत नहीं मिली लेकिन मरने पर आसमान ही उसके लिए छत हो गया
आयलान कुर्दी को आप नहीं जानते ....या जानते भी होंगे तो फर्क क्या पड़ता है....सिवा इसके कि वो एक रिफ्यूजी बच्चा था..सीरिया का था..अपने मुल्क में कत्लोगारत से बचने के लिए उसका परिवार दर दर भटक रहा था...गैर मुल्क में ना बसेरा मिला औऱ जो मासूम जिंदगी जिसने महज तीन बसंत देखे थे वो भी छीन गई
आयलान कुर्दी को जिंदगी के नियम नहीं मालूम थे...इंसानियत के तकाजे भी भला क्या पता रहे होंगे...बमुश्किल तो उसने चलना सीखा होगा...तुतला कर बोलना शुरू ही तो किया होगा...पापा दफ्तर से आते होंगे तो कंधों पर झूल जाता होगा...मम्मा डांटती होंगी तो किसी और कमरे में छिप जाता होगा...आयलान की दुनिया फिर क्यों छीन ली....आज पूरी दुनिया का कलेजा चाक हुआ जाता है....
शर्म आती है इस हत्यारी व्यवस्था पर जहां कोई आयलान मुस्कुराना तो छोड़िए सलीके से जिंदगी जी भी नहीं सकता
आज आयलान के मातम में करोड़ों आंखें बरस रही हैं करोड़ों लोगों का सीना छलनी हुआ जाता है...लेकिन आयलान कभी इस नींद से नहीं जागेगा...वो तो दुनिया के रवैये से थककर हमेशा के लिए सो गया है.....
आयलान हो सके तो हमें माफ कर देना...हम तुम्हारे लायक नहीं थे...ये दुनिया तुम्हारे काबिल नहीं थी...जिंदगी तो चलती रहेगी...लेकिन वक्त के हाशिये पर समंदर किनारे तुम्हारी लाश हमेशा के लिए किसी ईसा की तरह सलीब पर टंगी रहेगी...याद दिलाती रहेगी हमें कि हम कितने मुर्दा दौर में जी रहे हैं जहां एक मासूम मरकर भी जिंदा है और हम जिंदा रहकर भी शर्मिंदा हैं

Sunday, December 30, 2012

Bye...Bye Braveheart of India

 
देश की सरहदों से बहुत दूर सिंगापुर के उस अस्पताल के सर्द मुर्दाघर में पड़ा था उसका शव....वहां न तो तनी मुट्ठियां थीं..ना विरोध में लग रहे नारे...वहां अपनों के नाम पर थे परिवार के कुछ लोग....जिस बिटिया के बेहतर जिंदगी के सपने देखे ...जिसे मेहंदी भरे हाथों के साथ डोली में विदा करने के सपने देखे , आज उसी की अर्थी को कंधा देकर वतन लौटने के लिए मजबूर.... जिंदगी की टिमटिमाती लौ अचानक बुझ गई....उम्मीद की धुंधली रौशनी अंधेरे में बदल गई....सात समंदर पार वो परिवार ही नहीं रोया ..ये मातम पूरे मुल्क का है...ये मौत महज उस लड़की की नहीं जिसने जिंदगी के सपने पूरे होने से पहले जिंदगी के सबसे घिनौने सच का सामना किया....ये शर्मिंदगी हमारे वक्त की है....जिसके लिए कोई माफी नहीं.....आज सारी दुआएं बेकार चली गईं जो सफदरजंग अस्पताल से सिंगापुर के सफर तक साथ थीं...क्योंकि अब वो कभी लौटकर नहीं आएगी..... लेकिन पीछे छूट गया है शर्मिंदगी का अहसास जो खंजर की तरह सीने में पैबस्त है

 कितना भी रो लें...शोक मना लें....लेकिन शर्मिंदगी का ये अहसास हमारे, आपके पूरे दौर को चुभता रहेगा....
कहते हैं अधूरी ख्वाहिशें लिए जब कोई मरता है तो मुक्ति नहीं मिलती....तो क्या वो लड़की भी नफरत की दूनिया से बहुत बहुत दूर कुछ सोच रही होगी.....अगर सोच रही होगी तो इस समय के बारे में क्या सोचेगी...जिसके दामन पर हैं उसके खून के निशान......उस रात के बारे में क्या सोचेगी....जिसने एक झटके में उसकी जिंदगी में हमेशा के लिए अंधेरा भर दिया.....

मरने के बाद अगर कोई लौट सकता तो क्या वो लड़की भी दुबारा ऐसे शर्मिंदा कर देने वाले वक्त में लौटकर आने की हिम्मत जुटाती....जिसके स्याह हाशियों पर लिखी है उसके मौत की इबारत....जिसके माथे पर टंकी है कुछ दरिंदों के कलंक की काली कथा
मरने से पहले उसने क्या सोचा होगा....जब उसने आखिरी सांसें ली होंगी तो उसके जेहन में क्या चल रहा होगा.....जब जीने की ख्वाहिशों के बाद भी उसे दम तोड़ना पड़ा तो उसकी आखिरी इच्छा क्या रही होगी.....क्या वो हमें माफ कर सकी होगी....क्या वो इस शहर को माफ कर सकी होगी....क्या वो इस हत्यारे समय को माफ कर सकी होगी....जो उसके कत्ल का गवाह बना.......

लेकिन कहते हैं ना.... परियां कभी नहीं मरतीं....वो सितारों के बच कहीं बस जाती हैं....और वो परी ही तो थी...जिसका कोई गुनाह नहीं था...सिवा इसके कि वो जिंदा रहना चाहती थी....इस दुनिया में जीना चाहती थी....पापा की लाड़ली बनकर नाम कमाना चाहती थी....परिवार के अरमानों का आशियाना बसाना चाहती थी.....तो क्या वो परी सितारों के बीच से कहीं दुनिया के इस शर्मनाक दौर के बारे में सोच रही होगी.....आत्मा अजर है...आत्मा अमर है....शास्त्र यही कहते हैं...तो क्या उसकी आत्मा इस हत्यारे दौर को माफ कर सकेगी...जिसके माथे पर बड़े बड़े हरफों में लिखा है समय का सबसे शर्मनाक सच....
अदालतें फैसला दे देंगी....समाज मातम मना लेगा.....उसकी मौत पर हम खून के आंसू रो लेंगे....लेकिन अफसोस कि इस शर्मिंदगी से हम कभी नहीं उबर पाएंगे....क्योंकि कुछ जुर्म इतने संगीन होने हैं जिसकी कोई माफी नहीं होती....

 लेकिन आज आप भी उसकी याद में एक मोमबत्ती जरूर जलाना....नम आंखों से उसके लिए दुआ जरूर करना....एक प्रार्थना मौन होकर जरूर करना कि इस दुनिया में ना सही उस दुनिया में जरूर उसे बेहतर दुनिया मिले..जहां खुशी से वो चहचहा सको...जहां नई जिंदगी बसा सके
 
 
 

Saturday, September 29, 2012

इस शोक का कोई नाम नहीं



निजी शोक को बयान करना दुनिया में सबसे मुश्किल है...पंत जी का जाना सिर्फ मेरे लिए ही नहीं हर उस आदमी के लिए निजी से भी ज्यादा शोक की खबर है जिन्होंने उनके साथ कभी वक्त गुजारा..रविशंकर पंत लखनऊ से वाया मेरठ नोएडा आए और कब हम सबकी जिंदगी के अटूट हिस्सा बन गए पता ही नहीं चला...हम सब उन्हें प्यार से पंत जी कहते थे..सलीका और नफासत पंत जी की रगों में दौड़ता था...विनम्र इतने कि बड़े से बड़ा विशेषण भी छोटा पड़ जाएगा...आज वही पंत जी झटके में हम सब को छोड़कर चले गए...ये खबर मेरठ हिंदुस्तान के एक साथी के एसएमएस के जरिए पहुंची...जैसे ही नजर गई दिमाग ने काम करना बंद कर दिया...वो पुराने दिन अचानक सामने कौंधने लगे....वो सी-13..अमर उजाला नोएडा के वो बिंदास दिन...रात रात भर बहस के वो कभी ना खत्म होने वाले सिलसिले...खुद को बड़ा साबित करने की बचकानी होड़...लेकिन उन महफिलों में जो शख्स वाकई सबसे बड़ा था वो यकीनन पंत जी थे....
RIP pant ji



नोट: पंत जी का निधन कुछ अरसा पहले हुआ...ये पंक्तियां तभी की लिखी हुई हैं जिन्हें मैं अब जाकर पब्लिश कर पा रहा हूं

Thursday, November 25, 2010

जब तक रहेगा समोसे में आलू...



बुलबुला फूटा तो इसके फूटने की आवाज़ नहीं थी, शोर था लेकिन उस जश्न का जो बिहार में जेडी-यू और बीजेपी के कार्यकर्ता मना रहे थे। नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग ने एक दौर में उनके साथी रहे लालू यादव के माई (यानी एमवाई= मुस्लिम यादव) समीकरण के ऐसे धुर्रे उड़ाए कि कारवां गुजर गया और लालू गुबार देखते रहे। एक अभिशप्त नायक की तरह पराजित लालू जब मीडिया के सामने आए तो उनके सामने बोलने के लिए कुछ भी नहीं था। यहां तक कि वो सौजन्यता और बड़प्पन भी नदारद थी जिसकी उनके सरीखे बड़े नेताओं से उम्मीद रखी जाती है। हार को गरिमा से स्वीकार करने के बजाय वो नीतीश-बीजेपी की जीत में रहस्य के सूत्र तलाशते नज़र आए।
लालू की राजनीति का मर्सिया तो अरसा पहले पढ़ा जाने लगा था..लेकिन हर बार लालू इन मर्सियों को अपने स्टाइल में खारिज करते रहे...लेकिन इस बार नतीजों ने उन्हें जिस तरह से खारिज किया...उसके बाद तो वापसी की कोई गुंजाइश तभी मुमकिन है जब कोई बड़ा चमत्कार हो जाए, लेकिन पॉलिटिक्स में चमत्कार नहीं होते,
लालू का इस तरह मटियामेट होना उन तमाम लोगों के लिए बहुत दुखदायी होगा जिन्होंने एक समय जेपी के 'प्रतिभाशाली' चेलों में शुमार लालू में अनंत संभावनाएं देखी थीं, लगता था गांव गंवई के बीच से आया ये आदमी बिहार को समझेगा, दबे-कुचलों का संबल बनेगा, हारे लोगों की जीत का नायक बनेगा, लेकिन इन सपनों को लालू ने अपनी सत्ता के दिनों में किस तरह पलीता लगाया, इसके भी गवाह सभी रहे हैं। सियासत में मसखरी औऱ जात के नाम पर सत्ता के फार्मूले ने उनकी राजनीति को देखते ही देखते इतना बेमानी बना दिया कि अब उनके जख्मों पर मरहम लगाने वाला भी कोई नहीं।
नीतीश भी लालू की तरह जेपी के चेले रहे हैं, जेपी आंदोलन के दौरान ही उन्हें भी राजनीति की दीक्षा मिली है, लालू के साथ राजनीतिक दोस्ती में हमसफर रहे हैं औऱ अब राजनीतिक लड़ाई में विरोधी। लेकिन नीतीश के राज-काज का अंदाज लालू से बिल्कुल जुदा है, जिसके हम सभी गवाह रहे हैं। राजनीतिक बड़बोलेपन से दूर नीतीश सत्ता के लिए समझौतावादी सियासी बाजीगरी में बहुत हद तक यकीन नहीं करते, कुछ लोग इसे उनका पॉलिटिकल एरोगेंस कहते हैं, लेकिन बिहार जैसे पिछड़े राज्य में विकास के लिए ये एरोगेंस शायद जरूरी हो चला था।
इसलिए लालू के लिए शोकगीत गाने की जरूरत नहीं, क्योंकि उनके राजनीतिक ड्रामे का द एंड तो बहुत पहले हो चुका था, अभी तो बस इस पर वक्त की मुहर भर लगी है।

Monday, November 22, 2010

ये अंधेरा हमारे वक्त का है!


विचित्र प्रोसेशन,
गम्भीर क्वीक मार्च....
कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैण्ड-दल--
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति
आँतों के जाल से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गम्भीर गीत-स्वप्न-तरंगें
उभारते रहते,
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर।
बैण्ड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के!!
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-दल में!
उनके पीछे चल रहा
संगीत नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत
टेंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे!
शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था।
शायद, उनमें कई परिचित!!
उनके पीछे यह क्या!!
कैवेलरी!
काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
आबदार!!
कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल,
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलवन
हाय, हाय!!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आये हैं,
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।
विचारों की फिरकी सिर में घूमती है
इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर
आँखें उठीं मेरी ओर-भर
हृदय में मानो कि संगीन नोंकें ही घुस पड़ीं बर्बर,
सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर--
"मारो गोली, दाग़ो स्साले को एकदम
दुनिया की नज़रों से हटकर
छिपे तरीक़े से
हम जा रहे थे कि
आधीरात--अँधेरे में उसने
देख लिया हमको
व जान गया वह सब
मार डालो, उसको खत्म करो एकदम"
रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!!
गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!! (गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में' से साभार)

और अंत में---2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर यूं तो कई आंकड़े हैं, लाखों करोड़ का घपला, सरकार लपेटे में, लेकिन 2 जी का सिर्फ यही सच नहीं, ये सच कई धारणाएं तोड़ने वाला है, ये सच हमारे दौर के चमचमाते नामों को झन्नाटे में चकनाचूर कर देता है, पता नहीं आपको ये सच कैसा लगा, लेकिन मैं जिस धंधे में हूं, उस धंधे में रहने के बाद भी, मोटी चमड़ी होने के बाद भी, इस सच ने मुझे जरूर हिला कर रख दिया।

Saturday, March 27, 2010

दिल्ली टू रैय्याम वाया पटना दरभंगा-पार्ट-1

रात भर के सफर में नींद ठीक ठाक आई। सुबह होते होते ट्रेन पटना पहुंच गई, राजेंद्र नगर टर्मिनल पर उतरा, पहले ये नहीं था कुछ अरसा पहले खुला है, पहले तो पटना जंक्शन पर उतरना पड़ता था, खैर बाहर निकलने पर पटना की धुंधली सी धूल भरी, थोड़ी उमसाई सुबह इंतजार कर रही थी, बदला तो कुछ भी नहीं था, आया भले सालों बाद, कुछेक इमारतें नई दिखाई दीं, रहन-सहन-पहनावे का फर्क जरूर नजर आया, सड़कें कमोबेश वैसी ही थीं, लेकिन जहां तहां ओवरब्रिज तने खड़े थे, जिससे ये अहसास जरूर हो रहा था कि शायद बिहार वाकई बदल गया है।
एक दिन पटना रूका औऱ फिर अगली सुबह पटना से रैय्याम के लिए निकल पड़ा, गंगा सेतु (पुल)जब बना था तब लोग इसे देखने के लिए बिहार भर से आते थे, नदी के इस पार से उस पार शान से खड़े इस पुल ने उस जमाने में दूरियों को जिस तरह कम दिया था वो लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था, लेकिन वक्त बदला औऱ वो शान अब गर्दो गुबार में ढंक गया है। पुल जहां से शुरू होता है औऱ जहां खत्म होता है वहां तक घनघोर अराजकता के सिवा और कुछ नहीं नहीं, पुल कई जगह से टूट चुका है, थरथराते पुल पर सफर का ये अनुभव सिर्फ शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
पुल पार करने पर हाजीपुर और फिर टूटे-टाटे रास्ते में कभी पगडंडी पर गाड़ी तो कभी सड़क पर सफर बदस्तूर जारी रहा, मुजफ्फरपुर जब आया तो तो भी कहीं से नहीं लगा कि वाकई कुछ बदला है, ना कोई ट्रैफिक, ना ही सड़क, बहुत साल पहले गर्व से भरे वो बोल याद आए जब लोग मुजफ्फरपुर की तुलना ना जाने दुनिया के किन किन शहरों से करते थे। लेकिन सचमुच ऐसा लगा जैसे घड़ी की सुई यहां उलटी घूम रही है,
वैसे पूरा किस्सा बताते बताते ये जरूर साफ कर दूं कि मकसद कहीं से बिहार के विकास की परख का नहीं है,
इसे बस एक डायरी के चंद पन्ने समझ लीजिए, जिसपे आप कई बार यूं हीं बेमतलब कुछ लिख जाते हैं, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।

Wednesday, November 4, 2009

अपने-अपने दोजख




ख्वाबों के जंगल में भटकते हुए
पीली धूप के किसी पेड़ तले
उकताए, हारे, हांफते
एक दूसरे को निहारते...

कुछ महीने पहले सैय्यद जैगम इमाम की कविता पर लिखते वक्त अहसास नहीं था कि पीली धूप के पेड़ों तले एक दोजख भी है...लेकिन नहीं वो भूल थी जिसका अहसास मुझे अब हो रहा है..सबके अपने अपने दोजख हैं....और जैगम इमाम का भी..टीवी की व्यस्त दुनिया के बावजूद जैगम का पहला उपन्यास हाथों में देखकर यकीन नहीं हुआ...उपन्यास पहला जरूर है लेकिन मैच्योरिटी के लिहाज से जैगम पहली नजर में बड़े बड़ों की कन्नी काटते नजर आते हैं...
कहानी सीधी सी है...चंदौली जैसे छोटे से कस्बे का छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों औऱ कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा औऱ मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं....
उपन्यास की पूरी कथा मुख्य किरदार अल्लन के इर्द गिर्द घूमती है...अल्लन को भी पीली धूप के पेड़ों की तलाश है...अपनी छोटी सी दुनिया को देखकर अल्लन दिन-रात हैरान होता है...खुद से सवाल करता है...लेकिन ट्रैजिडी यही है कि उसे जवाब नहीं मिलते...ये ट्रैजिडी मन को बेहद छूती है...सच कहें तो कई बार आंखों को गीली कर देती है...
समाजशास्त्रीय खांचे के उत्तर आधुनिक विमर्श में उपन्यास कई बार सरहदों को तोड़ता दिखता है...कई बार ये सवाल उठते हैं कि क्या वाकई ऐसा मुमकिन है...क्या कस्बे के मामूली से लड़के का द्वंद्व ऐसा भी हो सकता है...लेकिन कहानी में अल्लन ही सबकुछ हो ऐसा भी नहीं है...क्योंकि आखिर में अल्लन के अब्बा की जो तस्वीर उकेरी गई है...वो औऱ भी झिंझोड़ने वाली है...वो पाठकों को औऱ भी भावुक करने वाली है....
खैर कहानी का खुलासा औऱ करना मुनासिब नहीं होगा...लेकिन जैगम को इस बात के लिए जरूर बधाई मिलनी चाहिए कि उन्होंने चंदौली के मिजाज को जिस भाषा में बयान किया है वो वाकई दिल के करीब है...कई जगह भदेस है...लेकिन ये भदेसपन भाता है...अल्लन की गालियां दिल को छूती हैं...कई पुराने शब्द जेहन में ताजा हो जाते हैं...
फेरन लवली (फेयर एंड लवली)..ये भी ऐसा ही एक लफ्ज है...
उपन्यास वक्त के खांचे में कितना फिट बैठता है इसका इंसाफ तो आने वाले साल करेंगे...पर ठोकबजाकर अभी ये राय जरूर बनाई जा सकती है कि जैगम का ये उपन्यास एक मजबूत आगाज है...हवा के ताज़ा झोंके की तरह है...ठीक उसी तरह जैसे आप किसी महानगर की सीलन भरी हवा से खुले जंगल-गांव में पहुंचते हैं औऱ ठंडी हवा के झोंके से अजीब सी झुरझरी देह को पल भर के लिए थरथरा देती है...
अल्लन भी आपको ऐसे ही सिहरने के लिए मजबूर कर देगा...

एक जानकारी--ये किताब राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापी है