Tuesday, October 14, 2008

जॉन डीकोस्टा की डायरी

पूरे आठ साल बीत चुके हैं...अब पहले जैसा कुछ कहां रहा...दरो दीवार...आस पड़ोस...गली मुहल्ले...शायद सब कुछ बदल गए....लेकिन जरा ठहरिए...इस नतीजे पर पहुंचना हो सकता है आपकी जल्दबाज़ी हो...क्योंकि वो मकान अब भी उसका इंतजार कर रहा है...उसकी मोटरसाइकिल भी तो वहीं पड़ी धूल खा रही है...अंदर तीन कमरे हैं...तीसरा और आखिर का कमरा उसका...जिसमें कोने में पड़ा उसका बिस्तर बेतरतीबी से गोल पड़ा रखा है...कहीं ऐसा तो नहीं अन्नू बाबू अचानक आ गए हैं!...हमेशा की तरह चुपचाप...बगैर किसी को बताए...डॉक्टर साहब की डांट की परवाह किए बिना...रोटी पर घी चपोरा...जितनी जल्दी परोसा...उतनी जल्दी पेट के हवाले किया...और फिर चुपचाप..फर्श पर बिस्तर बिछाने की जहमत उठाए बिना लंबलेट हो गए...क्या वाकई ऐसा ही हुआ है...या फिर ये सब सपना है....अगर ये सपना है तो फिर ये आवाज किसकी है...जो चिहुंकती हुई सी बोल रही है...स्टाइल भी बिल्कुल वैसा ही....आठ साल पहले जैसा...क्या बोल रहे हैं अन्नू बाबू...अरे य़ार बहुत थक गया था...सोचा थोड़ी नींद ले लूं....
जॉन डीकोस्टा की डायरी...पृष्ठ संख्या-1

7 comments:

विवेक सिंह said...

स्वागत है आपका .

प्रदीप मानोरिया said...

सार्थक आलेख बधाई आपका चिठ्ठा जगत में स्वागत है निरंतरता की चाहत है
बधाई स्वीकारें मेरे ब्लॉग पर भी पधारें

शोभा said...

अच्छा लिखा है आपने. चिटठा जगत मैं आपका स्वागत है.

Hari Joshi said...

ब्‍लागजगत में आपका स्‍वागत है।
हां भाई खास बात ये कि अपने पल्‍ले कुछ नहीं पड़ा। बुरा न मानना भाई थोड़ा समझदारी का अभाव है मुझमें। फिर भी अगली बार थोड़ा और दिमाग लगाउंगा।

Vineeta Yashsavi said...

diary padhke achha laga.

मिहिर said...

जोशी जी,
गली करतार में पधारने के लिए शुक्रिया। उम्मीद है आगे के पन्नों में आपको निराशा नहीं होगी..आते रहिए यही आग्रह है...हो सकता है आपको भी दस-पंद्रह साल पहले की कोई भूली बिसरी पगडंडी याद आ जाए

मिहिर said...

व्यस्तता के बीच आप सभी आए इसके लिए आभारी हूं...उम्मीद है डायरी के पन्नों पर अभी आपको बहुत कुछ और पढ़ने को मिलेगा