Wednesday, November 4, 2009

अपने-अपने दोजख




ख्वाबों के जंगल में भटकते हुए
पीली धूप के किसी पेड़ तले
उकताए, हारे, हांफते
एक दूसरे को निहारते...

कुछ महीने पहले सैय्यद जैगम इमाम की कविता पर लिखते वक्त अहसास नहीं था कि पीली धूप के पेड़ों तले एक दोजख भी है...लेकिन नहीं वो भूल थी जिसका अहसास मुझे अब हो रहा है..सबके अपने अपने दोजख हैं....और जैगम इमाम का भी..टीवी की व्यस्त दुनिया के बावजूद जैगम का पहला उपन्यास हाथों में देखकर यकीन नहीं हुआ...उपन्यास पहला जरूर है लेकिन मैच्योरिटी के लिहाज से जैगम पहली नजर में बड़े बड़ों की कन्नी काटते नजर आते हैं...
कहानी सीधी सी है...चंदौली जैसे छोटे से कस्बे का छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों औऱ कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा औऱ मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं....
उपन्यास की पूरी कथा मुख्य किरदार अल्लन के इर्द गिर्द घूमती है...अल्लन को भी पीली धूप के पेड़ों की तलाश है...अपनी छोटी सी दुनिया को देखकर अल्लन दिन-रात हैरान होता है...खुद से सवाल करता है...लेकिन ट्रैजिडी यही है कि उसे जवाब नहीं मिलते...ये ट्रैजिडी मन को बेहद छूती है...सच कहें तो कई बार आंखों को गीली कर देती है...
समाजशास्त्रीय खांचे के उत्तर आधुनिक विमर्श में उपन्यास कई बार सरहदों को तोड़ता दिखता है...कई बार ये सवाल उठते हैं कि क्या वाकई ऐसा मुमकिन है...क्या कस्बे के मामूली से लड़के का द्वंद्व ऐसा भी हो सकता है...लेकिन कहानी में अल्लन ही सबकुछ हो ऐसा भी नहीं है...क्योंकि आखिर में अल्लन के अब्बा की जो तस्वीर उकेरी गई है...वो औऱ भी झिंझोड़ने वाली है...वो पाठकों को औऱ भी भावुक करने वाली है....
खैर कहानी का खुलासा औऱ करना मुनासिब नहीं होगा...लेकिन जैगम को इस बात के लिए जरूर बधाई मिलनी चाहिए कि उन्होंने चंदौली के मिजाज को जिस भाषा में बयान किया है वो वाकई दिल के करीब है...कई जगह भदेस है...लेकिन ये भदेसपन भाता है...अल्लन की गालियां दिल को छूती हैं...कई पुराने शब्द जेहन में ताजा हो जाते हैं...
फेरन लवली (फेयर एंड लवली)..ये भी ऐसा ही एक लफ्ज है...
उपन्यास वक्त के खांचे में कितना फिट बैठता है इसका इंसाफ तो आने वाले साल करेंगे...पर ठोकबजाकर अभी ये राय जरूर बनाई जा सकती है कि जैगम का ये उपन्यास एक मजबूत आगाज है...हवा के ताज़ा झोंके की तरह है...ठीक उसी तरह जैसे आप किसी महानगर की सीलन भरी हवा से खुले जंगल-गांव में पहुंचते हैं औऱ ठंडी हवा के झोंके से अजीब सी झुरझरी देह को पल भर के लिए थरथरा देती है...
अल्लन भी आपको ऐसे ही सिहरने के लिए मजबूर कर देगा...

एक जानकारी--ये किताब राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापी है

Sunday, October 25, 2009

....तब कलेजा फट गया

भावुक नहीं हूं.....धर्म कर्म में दिलचस्पी भी बस स्वार्थ भर...गहरी मुसीबत में फंसे तो देवी-देवताओं को याद कर लिया....लेकिन फिर क्यों आंखें गीली हो गईं...गला रुंध गया...बरसों पीछे छूट गया वो नदी जैसा गंगासागर तालाब याद आया......घाटों पर छूटने वाले पटाखों की रोशनी और धमक जैसे ताजा हो गई....छठ के मौके पर घर की गहमागहमी याद आई औऱ ठेकुए की खुशबू भी कौंध गई....
मनोज तिवारी से लेकर दूसरे गायकों के छठी मइया पर गाए गानों को सुनकर ऐसा क्यों लगा मानो कलेजा फट गया हो...मां हर साल छठ पर आने के लिए कहती रहीं....लेकिन शहर छूटा तो ऐसा कि कभी जा ना सका....अब तो मां ने बीमार रहने और उम्र के चलते छठ उस तरह से करना छोड़ दिया है....लेकिन छठ के मौके पर जाना फिर भी ना हो सका.....
फिर आखिर वो कौन सी हूक थी कि जब मनोज तिवारी को छठी मईया के गाने गाते सुना तो रहा नहीं गया....क्यों याद आ गए वे दिन जब बचपन में छठ के लिए घाट को सजाने संवारने के लिए यार-दोस्तों के साथ घंटों बिताता था....सुबह टोकरी लेकर घाट पर जाना....भीड़ में मुश्किल से जगह बनाना....औऱ फिर सुबह के अर्घ्य के बाद घर लौटकर भरपेट प्रसाद खाना...औऱ मां के व्रत तोड़ने के लिए बने स्वादिष्ट खाने का छककर लुत्फ उठाना ....सब जैसे फ्लैशबैक की तरह आंखों के सामने डूबता उतराता रहा....छठ के ज्यादातर गानों को सुनें तो धुन एक सी लगती है....ये गाने तब उतने नहीं खींचते थे....लेकिन दस साल बाद मन की केमिस्ट्री में आखिर ऐसा क्या बदलाव आ गया कि छठी मइया के उन गानों को सुनकर पल भर के लिए लगा मानो मन विचलित हो गया हो....
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप जितने बड़े होते जाते हैं उतने ही पीछे के दिनों में गहरे डूबते जाते हैं.....खैर कई चीजों के लिए कोई दलील नहीं दी जा सकती...शायद इसके लिए भी मेरे पास कोई तर्क नहीं.....लेकिन हर चीज के लिए कोई वाजिब वजह हो ये भी तो जरूरी नहीं....आंखें हैं, छलक पड़ीं तो छलक पड़ीं....क्या फर्क पड़ता है कि आप भावुक हैं या नहीं.....कलेजा चाक हो गया तो हो गया....इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि जिंदगी के दूसरे तमाम मौकों पर आप कितने पत्थर दिल थे....

Sunday, June 14, 2009

हो सके तो माफ कर देना...

हो सकता है आज सुबह आप जब चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ रहे हों तो ये खबर कहीं किसी कोने में दिख जाए....खबर का शीर्षक कुछ इस तरह से हो सकता है...सिर में चोट लगने से मजदूर ने दम तोड़ा....बहुत मुमकिन है कि तीन चार लाइनों की ये खबर अखबार में फिलर (खाली जगह भरने के लिए) की तरह इस्तेमाल की जाए...

खबर मामूली होगी और आप गौर करने की जहमत क्यों उठाएं...आखिर दिल्ली की दौड़ती भागती सड़कों पर हादसे होते रहते हैं लेकिन हममें से कितने ठहरते हैं...हो सकता है पल भर के लिए थमते हों...लेकिन फिर उचटती निगाह से जायजा लेकर...या तमाशबीनों की भीड़ में किसी एक से रुटीन सा सवाल कि भाई साहब क्या हुआ है...पूछकर ज्यादातर चलते बनते हैं...
लेकिन ये वाकया ऐसा नहीं है...आप चलते भी बने तो ये आपका पीछा नहीं छोड़ेगा...
क्योंकि उसकी लाश अब भी अस्पताल के सीलन से भरे सर्द मुर्दाघर में औपचारिकताओं का इंतजार कर रही होगी...क्योंकि ये पूरी कहानी जीते-जागते आदमी के चंद घंटों में दम तोड़ने की है....ये अस्पतालों की बेरहमी के उस भयावह सच की एक औऱ खौफनाक दास्तां है...जिससे हम सबका साबका आए दिन पड़ता रहता है...कैलाश नाम का एक मजदूर काम करते वक्त छत से नीचे गिरकर घायल हो जाता है...सिर में गंभीर चोट लगती है और उसे आनन फानन में रोहिणी के अंबेडकर अस्पताल ले जाया जाता है...वहां के डॉक्टर हाथ खड़े कर देते हैं....मामूली मरहम पट्टी करके दिल्ली के बड़े अस्पतालों में शुमार आरएमएल हॉस्पीटल रेफर कर दिया जाता है....आरएमएल में जख्मी मजदूर को भर्ती नहीं किया जाता...बल्कि बहानेबाजी कर दूसरे बड़े अस्पताल एलएनजेपी भेज दिया जाता है....एलएनजेपी अस्पताल में भी किसी डॉक्टर का दिल नहीं पसीजता....इस बीच, कैट के एंबुलेंस में स्ट्रेचर पर पड़े कैलाश की हालत लगातार बिगड़ रही होती है....दोपहर रात में तब्दील हो चुकी होती है...डॉक्टरों को भी छुट्टी चाहिए शनिवार की शाम है...वीकेंड्स बर्बाद क्यों करें....क्या फर्क पड़ता है कोई मरे तो अपनी बला से...कैलाश कोई वीआईपी नहीं.. अगर कुछ हो भी गया तो क्लास लगने का डर तो नहीं....
लेकिन सारे डॉक्टर एक जैसे नहीं होते...उसी कैट की एंबुलेंस में अंबेडकर अस्पताल की एक महिला डॉक्टर भी घंटों से है...वो भी अपनी बिरादरी के दूसरे साथियों के बर्ताव से परेशान है...कुछ समझ नहीं आ रहा कि आखिर करे तो क्या करे....रात अब सुबह से कुछ घंटों की दूरी पर है.....लेकिन मौत कैलाश के सिरहाने खड़ी है....मौत औऱ कैलाश का फासला तेज़ी से कम हो रहा है....और फिर देखते ही देखते नीमबेहोशी की हालत में घंटों से जिंदगी के लिए जूझ रहा कैलाश आखिर मौत से हार जाता है....

अंत में--जिस कैलाश को जीते जी एलएनजेपी अस्पताल ने भर्ती नहीं किया...उसी के पार्थिव शरीर को कम से कम अस्पताल के मुर्दाघर में जगह मिल जाती है....कागजी कार्रवाई होनी है...पोस्टमार्टम होना है....
आखिर कहूं तो क्या कहूं...लिखूं तो क्या लिखूं...सिवा इसके कि कैलाश हो सके तो माफ कर देना...

Wednesday, June 10, 2009

टीवी, टीआरपी औऱ गरियाने का समाजशास्त्र !

हाल के कुछ महीनों में खबरिया चैनलों की खूब खिंचाई हुई...कभी मुंबई हमलों के बहाने धोया गया तो कभी टीआरपी के पुराने डंडे को हथियार बनाकर पीटा गया....
हद तो तब हो गई जब टीवी की दुनिया में कुछ महीने या कुछ सालों पहले तक सक्रिय रहे पत्रकारों ने भी बड़ी बेरहमी से मनगढ़ंत कहानियां दुनिया के सामने पेश करने में जरा भी झिझक नहीं महसूस की...कंटेट पर सवाल उठाए गए...औऱ तमाम चैनलों की नीयत पर शक किया गया....इक्का दुक्का चैनलों को जरूर बेनिफिट ऑफ डाउट देकर छोड़ दिया गया औऱ दलील ये दी गई कि वो चैनल शोषितों औऱ वंचितों की बात करते हैं...किसानों-मजदूरों के हको-हकूक की बात उठाते हैं...असली इंडिया दिखाते हैं...हो सकता है...दिखाते भी हों...उन्हें गलत साबित करना मेरा मकसद नहीं...
मकसद सिर्फ ये बताना है कि गरियाना इन दिनों फैशन बन गया है....किसी के बारे में ना आगे सोचो ना पीछे---जी भर के गाली दो...सुर्खियां खुद ब खुद मिल जाएंगी....मिसालें भरी पड़ी हैं...ऐसा ही कुछ रोज पहले हुआ था जब अचानक मुझे खुशवंत सिंह पर एक सज्जन की प्रतिक्रिया पढ़ने को मिली...खुशवंत की लानत-मलानत जिस छिछोरे अंदाज में की गई थी...उससे साफ था कि जिन सज्जन ने भी शब्दों की ये उलटी की थी...उन्होंने शायद ही खुशवंत को कभी पढ़ा होगा...शायद वो ये भी नहीं जानते होंगे कि खुशवंत सिर्फ अखबारों में रसीले कॉलम नहीं लिखते...उनका लिखा ऐसा बहुत कुछ है जिसकी अकादमिक काबिलियत पर बड़े बड़े आलोचक भी टिप्पणी करने से कतराते हैं....मैं खुशवंत सिंह को दुनिया का सबसे महान लेखक साबित करने की ना तो हैसियत रखता हूं...औऱ ना ही ये दावा कर रहा हूं...मैंने ये वाकया सिर्फ ट्रेंड बताने के लिए आपके सामने पेश किया है....
इसी तरह टीवी और टीआरपी की बात करें....भूत-प्रेत-क्रिकेट-बॉलीवुड से सने कंटेंट की बात करें तो यकीनन आलोचना की गुंजाइश हर माध्यम में है और उतने के हकदार खबरिया चैनल भी हैं....इसके लिए ना तो मैं कोई सफाई पेश करना चाहता हूं औऱ ना ही इन्हें जायज ठहराने के लिए दलील दे रहा हूं....लेकिन गरियाने के फैशन में मशगूल भाई-बंधुओं को ये जरूर याद दिलाना चाहता हूं दर्शक जिसे चाहता है उसे देखता है....समय से बड़ा सेंसर बोर्ड कोई नहीं होता क्योंकि इसकी कैंची बड़ी बेरहम होती है....भूत-प्रेत अब ज्यादातर चैनलों से हवा हो चुके हैं....ऊटपटांग खबरें भी अब ज्यादातर चैनलों पर हाशिये में चली गई हैं....रहा सवाल क्रिकेट का तो अगर कोई खेल देश में सबसे ज्यादा देखा जाता है...जिसके हीरो अपने चाहने वालों की नजर में भगवान से कम नहीं...तो उनकी खबरें दिखाकर टीवी चैनल कौन सा गैरजमानती अपराध कर देते हैं...ये समझ से परे है!
खबरिया चैनलों से पुराना अखबारों का इतिहास है...लेकिन क्या एक भी अखबार का नाम जेहन में आता है जो बॉलीवुड की गर्मागर्म खबरों को छौंक लगाकर नहीं पेश करता हो...आखिर शीतल मफतलाल की गिरफ्तारी और फिर जमानत रातोंरात राष्ट्रीय महत्व की खबर कैसे बन जाती है! लेकिन तब तो आप खामोश हैं....लेकिन पड़ोसी मुल्क जहां की हर छोटी बड़ी घटना का असर हमारे देश पर हो सकता है...वहां तालिबान की करतूतों पर चैनलों ने दिखा दिया तो मानो पहाड़ टूट पड़ा हो....
...खैर अगली बार आप टीआरपी के बहाने खबरिया चैनलों की क्लास लेने में जुटे हुए हों तो जरा खुद के अंदर भी जरूर झांकिएगा....सिर्फ सुर में सुर मिलाकर गरियाने से लोकतंत्र नहीं मजबूत होता....आप दर्शक हैं...रिमोट उठाइये...औऱ बदल दीजिए वो चैनल जो आप नहीं देखना चाहते...

Sunday, June 7, 2009

अजीब दास्तां है ये...

सोचा था, आज भी नहीं लिखूंगा...लेकिन ऐसा हो ना सका...सो एक बार फिर हाजिर हूं....
जून की तपती दुपहरियों के इस जानलेवा मौसम में दिल्ली अक्सर लुटी-पिटी और बेदिल सी दिखती है....तब भी ऐसा ही था...सुबह से गर्म हवा के थपेड़े औऱ चढ़ते सूरज के साथ धूप का मिजाज उन दिनों भी इतना ही तीखा हुआ करता था...नॉर्थ कैंपस में एडमिशन के लिए लड़के लड़कियों की फौज तब भी पसीने से तरबतर हैरान-परेशान कॉलेज दर कॉलेज चक्कर काटती थी...आज भी ऐसा ही माहौल दिख जाएगा....
-जब जनवरी में गली करतार सिंह पर आखिरी पोस्ट लिखी थी....तब भी ब्लॉग की दुनिया लिक्खाड़ों से भरी-पूरी थी....गली-मुहल्ले-सड़कें-बस्ती-टोले गुलजार थे ...आज भी है...
-तो क्या सबकुछ यूं ही चलता रहता है! बदलता कुछ भी नहीं---या जो बदलता दिखता है---वो सब धोखा है--माफ कीजिए-बदलाव के दर्शन में आपको उलझाना कतई मकसद नहीं...मैं तो मौसम के बेरहम अंदाज को बयां कर रहा था....जो सुबह से ही कहीं निकलना मुहाल कर देता है....
खैर ये दास्तां अजीब है....इसलिए कृपया ओर-छोर तलाशने की कोशिश नहीं कीजिएगा...ये पता नहीं कहां शुरू हुई औऱ ना जाने कब खतम होगी....

Sunday, January 25, 2009

इस धंधे में कोई अजातशत्रु नहीं!!!

नवभारत टाइम्स, दिल्ली के एक्जीक्यूटिव एडीटर और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार अब इस संस्थान के हिस्से नहीं रहे। सूत्रों के अनुसार 58 वर्ष की उम्र पूरी हो जाने पर उन्होंने संस्थान से रिटायरमेंट ले लिया। ---हाल ही में एक वेबसाइट पर प्रकाशित खबर



खबर पढ़ते ही पता नहीं कब मन उन दिनों में भटकने लगा जब करिअर की शुरुआत कर रहा था....वे दिन निजी तौर पर मेरे लिए कला औऱ साहित्य के नाम पर इधर-उधर मगजमारी से ज्यादा कुछ नहीं थे...शाम का वक्त मंडी हाउस में गुजरता और दोपहर दोस्तों के साथ लंबी चौड़ी प्लानिंग में....ये वो दिन भी थे जब दो वक्त खाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती...गली से बाहर निकलते औऱ कल्लू पहलवान (वाकई उस दुकानदार का यही नाम था) के यहां जाकर बढ़िया बिल्कुल गाढ़ी लस्सी पीते...जिसमें पानी की एक बूंद नहीं होती...उसके पहले पूरी-सब्ज़ी का मजा लेना नहीं भूलते...पैसे रहे तो दे दिए नहीं रहे तो कोई बात नहीं कल तो मिल ही जाएंगे...घर लौटते वक्त ठेले (रेहड़ी) पर टूटे हुए केले दो चार खरीद लिए...ताकि इमरजेंसी में काम आ सकें.....हां सिगरेट (बड़ी वाली गोल्डफ्लेक ) का स्टॉक खरीदना हममें से कोई नहीं भूलता....(हालांकि अंबुमणि रामदौस की सख्ती से बहुत साल पहले सिगरेट पीनी छोड़ चुका हूं....पता नहीं क्यों सिगरेट पीना मुझे हमेशा बेवजह लगा....सिगरेटखोरी में कई लोगों को मज़ा आता है....पर मुझे कभी कोई स्वाद नहीं लगा)

ऐसे ही फाकामस्ती के दिनों में जब भविष्य की फिक्र सताने लगी.....तो एक रोज बस पकड़कर नोएडा चला गया...गोलचक्कर पर उतरा औऱ फिर वहां से सेक्टर आठ के लिए रिक्शा लेकर एक अखबार के दफ्तर पहुंच गया....न्यूज रूम के नाम पर रोमानी हो जाएं ऐसा कुछ भी उन दिनों नहीं था.....एक बड़ा सा हाल...दीवारों का प्लस्तर जहां तहां से उधड़ा हुआ....जिसमें बीच का हिस्सा खाली औऱ किनारे किनारे डेस्क....(डेस्क के नीचे डस्टबीन....जो बाद में पता चला कि पीकदान बन गए हैं) काम करने वाले लोगों ने उचटती निगाहों से देखा....कोई नया है सोचकर ज्यादा भाव ना मिलना था औऱ ना ही मिला....मई-जून का महीना रहा होगा....धूप ऐसी जबरदस्त कि पसीने छूट गए....मन ही मन ये भी सोचा इससे अच्छा तो घर पर एक नींद ही मार लेता....खैर वहीं हॉल के बाहर रिसेप्शन नुमा जगह पर बैठ गया....क्योंकि प्रदीप जी अभी तक आए नहीं थे.....

थोड़ी देर बाद आए....उनसे मुलाकात हुई....मेरा टेस्ट लिया गया....(कुछ पन्ने अनुवाद कराए....इंग्लिश से हिंदी) ऊपरवाले की दया से मेरा अनुवाद उन्हें बेहतर लगा....औऱ इस तरह मिल गई मुझे जिंदगी की पहली नौकरी.....जब लौट रहा था तब सूरज ढल रहा था....उस दिन मुझे आसमान जितना खूबसूरत लगा उतना कभी नहीं लगा....अजीब सी खुशी....नौकरी दो हज़ार की मिली थी...दिल्ली जैसे शहर में दो हजार रुपये की पगार 1995में कम नहीं थी....नहीं कुछ से अच्छा था कि चलो कुछ तो आ रहा है...घर वालों के लिए भी इत्मीनान दिलाना जरूरी हो चला था....
खैर इस तरह प्रदीप जी से मेरा साबका पड़ा...प्रदीप जी से सीखने के लिए हजारों चीजें थीं...भाषाई झोल उन्हें कतई गवारा नहीं था....अनुवाद को लेकर बेहद आग्रही...अगर किसी ने पीटीआई की कॉपी का बंटाधार किया तो भरे न्यूज़रूम में फजीहत से उसे कोई बचा नहीं सकता....लेकिन इतने साल इस धंधे में गुजारने के बाद ये जरूर कहना चाहूंगा कि प्रदीप जी का खुद का अनुवाद भी बेहद सधा हुआ...सलीकेदार था...रौ में लिखें तो कविता से कम नहीं....खासतौर से दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के मामले में जज प्रेम कुमार का फैसला आया था....उस फैसले में जज ने गीता या किसी और धर्मग्रंथ के किसी श्लोक का हवाला दिया था....फर्ज कीजिए कि श्लोक संस्कृत में रहा होगा....जज ने अंग्रेजी में फैसला लिखा होगा...श्लोक का अंग्रेजी में अनुवाद किया होगा....औऱ फिर खबर में इसी का प्रदीप जी ने हिंदी अनुवाद किया तो मानो कविता रच डाली....(शीर्षक कुछ इस तरह से था---काल कर देता है सबका संहार)
उन्हीं प्रदीप जी के रिटायरमेंट लेने की खबर पढ़ी तो यकीन नहीं हुआ...क्योंकि अखबारों में मंदी के नाम पर जो कत्लेआम मचा हुआ है...उसने अंदर से खोखली पर बाहर से चमकीली दिखने वाली इस दुनिया के शीशमहल को छन्न से तोड़ दिया है....बड़े बड़े नाम मिनटों में दफ्तर से बेदखल कर दिए गए....ऐसे में कब किसके साथ क्या हो जाए कहना मुश्किल है.....जहां तक प्रदीप जी की बात है उन्होंने सैकड़ों लोगों के साथ काम किया.... कई को नौकरी दी....कई की नौकरी ली....अखबारों से लेकर टीवी सभी माध्यमों में मंजे...और बहुतों को मांजा.... हो सकता है कईयों का तजुर्बा उनके साथ अच्छा नहीं रहा होगा....कईयों की नज़र में वो विलेन भी रहे होंगे....लेकिन मैंने उनके जिस पहलू को जाना....जिसके कारण उनको अपने गुरु की तरह माना...वो पहलू मन के किसी कोने में हमेशा बरकरार रहेगा.....
वैसे भी ये धंधा बड़ा निर्मम है इसमें कोई अजातशत्रु नहीं होता.....

Monday, January 12, 2009

पर कितना मुश्किल है भूल जाना...

सालों पहले जब दिल्ली में रहने के बाद पटना लौटा था तो वहां का रेलवे स्टेशन विचित्र लगा था...क्योंकि आंखों में तब नई दिल्ली का लंबा-चौड़ा स्टेशन बसा था जिसमें कई प्लेटफॉर्म औऱ दिन-रात गुजरती ट्रेनों से उतरते मुसाफिरों का कभी ना खत्म होने वाला रेला सिर को चकरा देता था...
सालों पहले जब धूमिल और मुक्तिबोध को पढ़ता था....रातें गोरख पांडे औऱ सर्वेश्वर की कविताओं को पढ़ने में गुजर जाती थीं और सुबह कभी ग्यारह बजे से पहले नहीं होती थी...तब और अब के दौर में बहुत कुछ बदल चुका है....दिल्ली का मौसम बदल गया है और बदला है सड़कों का हुलिया...आबादी बढ़ी है...और अब बारिश के दिनों में भी बारिश का इंतजार रहता है....ठंड के दिनों में कंपा देने वाली ठंड अब क्यों नहीं पड़ती, नहीं मालूम...अंदर झांकता हूं तो ऐसा लगता है मानो दिल्ली का नक्शा और मौसम ही नहीं...अपना खुद का मिजाज भी बदल गया है...
लौटता हूं कई साल पीछे तो याद आता हैं वो मौसम जब बारिश के दिनों में ब्लूलाइन की ५०१ नंबर की बस पकड़ी थी...बूंदा बांदी हो रही थी...सड़कें भीग चुकी थीं...और कपड़े सील से गए थे...दिल्ली तब अजनबी लगनी बंद हो चुकी थी...लेकिन आंखें नई चीज को देखकर चौंकने लेकिन छिपाने वाली कोशिश तब भी करती थीं....पर तब तक मैं इस अजनबी से शहर को अपना चुका था...अजनबियों की भीड़ का हिस्सा बन चुका था....और ये बेतुका ख्वाब भी देखता था कि एक दिन पूरे शहर को फतह कर लूंगा.....
उस भीगे दिन जब बस आखिरी स्टॉप पर उतरी थी तब वहां से बरफखाने की बस पकड़ी औऱ पूछता-पाछता पहुंच गया सब्ज़ीमंडी....
वो इलाका जहां पहुंचकर ऐसा लगा- मानो इस दिल्ली का कनाट प्लेस की दिल्ली...हुमायूं रोड-शाहजहां रोड और फीरोजशाह रोड जैसे इलाकों से कोई रिश्ता ही नहीं....उसी सब्जी मंडी में एक था इंदिरा मार्केट जहां बीजों और पेस्टिसाइड्स की दुकानें थीं...औऱ इन्हीं दुकानों के पीछे से गुजरती थीं कई गलियां....जिनमें से एक थी गली करतार...वही गली जो मेरे ब्लॉग का नाम है....वही गली जो आज भी मन के कबाड़खाने में कहीं चोरदरवाजों के पीछे छिपी है
बारिश तेज़ हो चुकी थी...दुकानों के छज्जों में बारिश से खुद को छिपता-छिपाता....किसी तरह वहां पहुंचा जहां मुझे जाना था....बारिश के मौसम में बादलों से ढंके आसमान का घुप्प अंधेरा बड़ा अजब होता है...ऐसा ही अंधेरा उस रोज भी था...सारे सामान के साथ गली करतार के उस मकान में पहुंचा जहां औऱ भी कई साथी रहते थे...कुछ थे जो डीयू में पढ़ रहे थे....तो कुछ थे जो ब्रिटिश स्कूल ऑफ लैंग्वेज में अंग्रेजी सीख रहे थे...उनमें से हरेक का सपना दिल्ली फतह करने का ही था....लेकिन जो दिल्ली मुगलों से लेकर तमाम राजे-महराजे और फिर अंग्रेजों की नहीं हो सकी...जिन्होंने कई बार इसपे जीत हासिल की औऱ आखिर में हार गए...वो हमारी क्या होनी थी...सो नहीं हुई....
लेकिन मुझे जरूर ऐसा माहौल मिल चुका था...जहां मैंने जिंदगी के कई अंधेरे-उजाले देखे...कविताओं का चस्का लगा...धूमिल की कविताएं कंठस्थ हो गईं औऱ मुक्तिबोध को आर-पार पढ़ डाला....निराला तब भी अच्छे लगते थे...औऱ आज भी...
खैर...नॉस्टैलजिया अक्सर नशे की तरह होता है...आप जितना डूबेंगे...डूबते चले जाएंगे....
आज की ये पोस्ट भी इसी की उपज है
क्योंकि भूलना मुश्किल होता है
बहुत मुश्किल...
अगला किस्सा फिर कभी....

Friday, January 9, 2009

इस शोकगीत में कोई नायक नहीं!

आमतौर पर शोकगीत महानायकों के लिखे जाते हैं...गाए जाते हैं...उनके नहीं जिनका गुजरना आपके हमारे जीवन को कहीं से रत्ती भर भी नहीं छूता....
लेकिन उस तस्वीर में ऐसी बात नहीं थी....तस्वीर अखबारों मे छपी थी....वो जो टाइम्स के एशियाई हीरो की लिस्ट में कभी शुमार था...उसी का पार्थिव शरीर पटना में उस सीली सर्द सुबह कमरे में फर्श पर रखा था...सिरहाने टेलीफोन...पास में बिलखती पत्नी और बच्चे... और एकआध रिश्तेदार....
तस्वीरें सच बयां करती हैं...औऱ कभी-कभी समय का ठंडा औऱ भयावह चेहरा दिखाती हैं...पता नहीं क्यों उस सुबह ये तस्वीर भी मुझे कुछ ऐसा ही अहसास करा गई।
ये तस्वीर गौतम गोस्वामी की थी....आईएएस ऑफिसर गौतम गोस्वामी...एक ऐसा शख्स जिसके करिअर की शुरुआत सुनहरी हुई, लेकिन अंत बेहद त्रासद।
पटना के पूर्व डीएम गौतम गोस्वामी...जिन्होंने एक समय आडवाणी को भरी सभा में वक्त की पाबंदी याद दिलाते हुए रैली खत्म करने पर मजबूर कर दिया था...लेकिन यही तेज़ तर्रार अफसर जब बाढ़ घोटाले में घुटनों तक सन गया तब बेआबरू होकर नौकरी छोड़नी पड़ी...हालांकि बाद में नौकरी में वापसी हुई....लेकिन तब तक गौतम गोस्वामी के लिए जिंदगी के मायने बदल चुके थे....सुनहरा करिअर पीछे छूट चुका था...और पैनक्रियाटिक कैंसर हर पल जिंदगी को निगल रहा था....
गौतम गोस्वामी की ये तस्वीर महज तस्वीर नहीं थी....ये वक्त का बड़ा ही अजीबोगरीब हिसाब था...जिसकी उधड़ती परतों में ये भयानक सच झांक रहा था कि कैसे कोई हीरो अचानक खलनायकों में तब्दील हो जाता है....आखिर क्या हालात रहे होगें....क्या भ्रष्ट होती राजनीतिक व्यवस्था या फिर इंसान का खुद का अपना लालच...
इन वजहों पर जाने का कोई मतलब नहीं क्योंकि गौतम गोस्वामी इन तमाम दलीलों, तर्कों और सवाल-जवाबों को पीछे छोड़ चले गए हैं....बाकी बच गई है तो वो तस्वीर जिसमें पटना की उस सीलन भरी सुबह का सर्द कर देने वाला रोजनामचा दर्ज था...

Thursday, January 8, 2009

जरा उन 53000 लोगों के बारे में भी सोचिएगा!!!

जो कल तक अभेद्य किले दिखते थे वो सेकेंडों में रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर पड़े...जिनकी नींव सबसे ठोस मानी जाती थी...वहां एक ऐसी अंधी सुरंग निकली जिसमें लाखों निवेशकों का भरोसा दफन हो गया....लेकिन फिक्र यहां नहीं है---बाज़ार है तो घाटा भी होगा...मंदी के इस दौर में ना जाने कितने डूब गए औऱ कई वैसे भी हैं जो बन गए...
यहां चिंता उन तिरेपन हजार लोगों की है जो कल तक ऊंची तनख्वाहों पर जीते थे....लेकिन सत्यम के असत्य ने झटके भर में जिनका आशियाना तिनकों की तरह बिखेर दिया...आईटी सेक्टर में नौकरियों के लिए कुछ ही घंटों में बत्तीस हजार से भी ज्यादा अर्जियां इंटरनेट के जरिए नौकरी मुहैया कराने वाली कंपनियों की साइट पर पहुंच गईं...
हमारे दौर का इससे भयावह सच और कुछ नहीं हो सकता....महंगी पढ़ाई करने के बाद किसी ब्लूचिप कंपनी में और वो भी सत्यम जैसी नामी गिरामी हो तो फिर कहने क्या...लेकिन सुकून का अहसास भी कभी कभी कितना फर्जी होता है---ये जरा पूछना हो तो उन तिरेपन हजार लोगों के मन में भी झांककर देखिएगा जो सत्यम में काम करते थे....
आखिर गलत कहां हुआ....सबकुछ तो ठीक था...सबसे बढ़िया मानी जाने वाली नौकरी...सुरक्षित भविष्य औऱ अपने अपने आस -पड़ोस में वे सब रोलमॉडल भी तो रहे होंगे...तनख्वाह अच्छी तो घर भी अच्छा ले ही लिया होगा...और अच्छा घर लिया हो तो ईएमआई भी अच्छी कटती ही होगी...बड़ी गाड़ियों को बड़ी करने की होड़ में भी कई जुटे हुए होंगे....लेकिन चंद झूठ ने एक साथ हजारों कर्मचारियों की जिंदगी को दांव पर लगा दिया....
आप अगर बड़ी जगहों पर काम करते हों...तो आलीशान दफ्तरों में बैठने के बाद कई बार हकीकत की सख्त जमीन से वास्ता छूट सा जाता है...ऐसा भी होता है जब आप अपनी बनाई ही दुनिया में जीने लगते हैं....लेकिन यही दुनिया जब मुट्ठी से फिसलने लगे तो इससे क्रूर मजाक कुछ और नहीं हो सकता...सत्यम के उन तिरेपन हजार साथियों के साथ भी यही हुआ....
खैर संकट की इस घड़ी में हम कर भी क्या सकते हैं....सिवाय इसके कि पूरी आस्था के साथ उनके लिए प्रार्थना करें....
इसलिए हो सके तो तो आप भी रोजमर्रा की भागती-दौड़ती जिंदगी में फुर्सत के कुछ पल संजोकर जरा उनके बारे में सोचिएगा....उन तिरेपन हजार लोगों के बारे में जरूर सोचिएगा....क्योंकि ये सच कल होकर किसी का भी हो सकता है....

Tuesday, January 6, 2009

पीली धूप का पेड़ !

ख्वाबों के जंगल में भटकते हुए
पीली धूप के किसी पेड़ तले
उकताए, हारे, हांफते
एक दूसरे को निहारते...

-सैय्यद जैगम इमाम की कविता का एक अंश

पीली धूप के पेड़ आपने कहीं देखे हैं....शायद नहीं...इन दरख्तों को आप महसूस कर सकते हैं...हकीकत में नहीं बल्कि ख्वाबों में.....अपने साथी जैगम इमाम की कविता जब सुन रहा था तब मन ही मन यही सोचा....
चटख रंग आपको अपनी ओर खींचते हैं जिसमें हम मन के धूसर....बुझे रंगों को कहीं दफन कर देते हैं....चाहे हरा हो या पीला या फिर नीला....कभी कभी लाल भी...ये कुछ ऐसे रंग हैं जो अक्सर हमें अपने ख्वाबों को सतरंगा बुनने के काम आते हैं.....
बचपन के दिनों में कभी किसी राइम की बुक में या किस्से कहानियों की किताबों में छोटे-छोटे दरख्त देखता था----पन्नों पर छपा आसमान और इस पर टंके तारे-चांद देखता था तो कई बार मन इतना ललचाता था.. मानों इन्हें छू लूं....अजब सी मायावी और सम्मोहक दुनिया थी जिसके घुमावदार रास्तों में भटकता रहता था....छोटे छोटे ख्वाब---बेसिर-पैर की हसरतें---अजब सा तिलिस्म....जासूसी उपन्यासों से लेकर वेताल की कहानियों, राजा-रानी की दुनिया से लेकर चंदामामा...औऱ भी ना जाने कितना कुछ...
आज जब पलटकर देखता हूं तो कभी हंसी आती है... कभी लगता है कि आप जिन मोड़ों से गुजर चुके होते हैं वो उस वक्त बेहद घुमावदार भले ही लगे हों पर अब कितने आसान महसूस होते हैं...
लेकिन तलाश तब भी होती थी...जो कभी पूरी नहीं होती थी...तलाश अब भी है जो पता नहीं कब पूरी होगी....
जो ख्वाब कल बड़े लगते थे आज वो मामूली लगते हैं....जो हसरतें आज बड़ी लग रही हैं शायद कल इनके बारे में सोचने की फुर्सत भी ना मिले....
चाहे जो भी हो पर ये तय है कि ख्वाबों के जंगलों में यूं ही भटकने का मज़ा ही कुछ और है...खासकर तब जबकि उकताए थके हारे किसी पेड़ के नीचे हांफते सुस्ता रहे हों...
ये रोमांच कई बरस पहले भी खींचता था
औऱ आज भी खींचता है
पीली धूप के उस पेड़ की तलाश तब भी थी
औऱ अब भी है
क्या पता किसी दिन वाकई मुझे मिल जाए पीली धूप का वो पेड़!!!
आइये दुआ करें!!

जाइए भाई चीरा लगवा के आइए...

जॉन डीकोस्टा की डाय़री के इस पन्ने के लेखक हैं रवि बुले

रवि बुले का परिचय-हिंदी में नई कहानी के नए दौर की नींव मजबूत करने में रवि बुले शिद्दत से जुटे हुए हैं.....फिलहाल मायानगरी में सक्रिय...फिल्मों का नया व्याकरण गढ़ने की बेचैनी इन दिनों उनकी पहली प्राथमिकता है...देश के कई नामी गिरामी अखबारों से जुड़े रहे...सूत्रधार जॉन डीकोस्टा के विशेष आग्रह पर बुले जी ने वृतांत का ये अध्याय जोड़ा है....आगे भी गली करतार के पाठकों को बुले जी की लेखनी का जादू देखने को मिलता रहेगा

  • जॉन डीकोस्टा की डायरी का पेज नंबर-7
अन्नू बाबू अपने आस-पास एक कोहरा-सा लिए चलते थे!! ...और अकसर उसमें गुम हो जाते थे। ये उनके व्यक्तित्व का अनूठा रहस्य था। कभी कमरे में बैठे-बैठे। कभी ठंड या बे-मौसम रजाई में दुबके। किसी गर्भस्थ शिशु-सा अपने पैरों को छाती से सटाए। मगर उनके जूते रजाई में से सदा झांकते रहते। ऐसा लगता कि मानो ये आदमी रजाई के बाहर अपने जूते छोड़ कर भीतर किसी गम भरी दुनिया में खो गया है!! परंतु कभी यह भी लगता कि अन्नू बाबू ने ये जूते दुनिया के मुंह पर दे मारने के लिए छोड़े हैं। क्या अन्नू बाबू अपने कोहरे में से वापस लौट कर, उन्हें सताने वाली 'जॉर्ज-बुशी-दुनिया" के मुंह पर जूते मारेंगे? हालांकि अन्नू बाबू ने अपना "क्षत्रियत्व" कभी जाहिर नहीं किया। तब भी नहीं, जब वे उस रोज सुबह कोहरे को चीरते हुए लौटे और सी-13 के दरवाजे पर डॉक्टर साहब से दरवाजे पर उनकी मुठभेड़ हुई!! अखबार के तहखाना-दफ्तर में अन्नू बाबू हर शाम खुद को अगर थोड़ा घिसने के लिए जाते थे, तो ये उनकी मजबूरी थी। गिरगिटिया आंखों वाले बॉस के सामने रंग बदलना अन्नु बाबू ने सीख लिया था! यह सहज ही हुआ या यह उनके भीतर छुपा एक और रहस्य था? अन्नू बाबू रंग बदलने का अपना रहस्य खैनी की पीक के साथ दफ्तर के डस्टबीन में ही उगल आया करते थे। अन्नू बाबू अपने रहस्यों को सात परदों में छुपा कर रखते थे। मगर, डॉक्टर साहब में हर बात को बेपरदा करने की जिद थी!! आंगन की गुनगुनी गुलाबी धूप में सदा चलने वाली दोनों की इसी रस्साकशी में एक दिन यह सवाल पेश हो गया कि क्या अन्नू बाबू "वृषण-जल-रोग" के शिकार हो गए हैं? डॉक्टर साहब ने सार्वजनिक रूप से अन्नू बाबू के सामने गर्जना की... जाइए भाई इसमें चीरा लगवा के आइए...।अन्नु बाबू सन्न और निरुत्तर!! ये तो पहले से साफ था कि जिस तहखाने में अन्नू बाबू नौकरी बजाते थे, वो अखबार का वृषण था। उसमें जल की सी ठंडक सदा मौजूद रहती थी। जिसे तहखाने में मजूरी करने वाला हर व्यक्ति मफलर-सा लपेटे रहता था। अगर कभी किसी ने ठंड को लेकर शिकायत की और अपना तापमान बढ़ाया, तो गिरगिटिया आंखों वाला बॉस उसे सामने की सीढिय़ां दिखा देता! सभी सीढिय़ां स्वर्ग को तो नहीं जाती!! ...और बारह महीनों, चौबीस घंटे ठंड खाकर भी लोग जिंदा रहते हैं!! अन्नू बाबू भी जिंदा थे। "वृषण-जल-रोग" के साथ!! जिन दिनों अन्नू बाबू कुहासे को चीरते हुए कहीं चले गए थे, तब तमाम चर्चाओं के बीच एक चर्चा यह उठी कि कहीं वे वृषण में चीरा लगवा कर समस्या से छुटकारा पाने तो नहीं चले गए? नौकरी में लगातार परेशान होते अन्नु बाबू शिद्दत से महसूस करने लगे थे कि तहखाना अखबार का वृषण है। गिरगिटिया बॉस अखबार मालिकों का वृषण है। मगर वे अपने वृषण से हैरान थे। कभी कभार वे क्रोध में आकर एक साथ इन सबसे निजात पाने को उतावले हो जाते। परंतु उनके भीतर एक संत भाव भी था। जो तस्वीरों में गांधी जी के चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता है। अन्नु बाबू को इतना क्रोध कभी नहीं आया कि वे अपने जीवन में मौजूद तमाम वृषणों पर कोई निर्णय ले पाते। एकांत में विचार करते हुए वे अकसर अहल्या की तरह पत्थर के बन जाते...!क्या अन्नू बाबू किसी शाप से ग्रस्त थे...?ज्यादातर पुराण कहते हैं कि गौतम ऋषि अपनी पत्नी अहल्या और उसे बहका कर बलात्कार करने वाले इंद्र को शाप देकर किसी कोहरे में खो गए थे! परंतु लिंग पुराण में दर्ज इस कथा में थोड़ा ट्विस्ट है। यहां गौतम इंद्र को सिर्फ शाप नहीं देते। बल्कि क्रोध में आकर उसे जमीन पर पटकते हैं और उसके वृषण उखाड़ लेते हैं!! गौतम के पौरुष की गवाही सिर्फ इसी पुराण में है। एकांत में विचार करते हुए अहल्या-से बन जाने वाले अन्नु बाबू के पौरुष की गवाही क्या किसी किस्से में आएगी...? जॉन डीकोस्टा की डायरी के आगे के पन्नों में इस पर से परदा उठेगा...
जॉन डीकोस्टा की डायरी
पेज संख्या-7

Sunday, January 4, 2009

...और कोहरे को चीरता वो आ गया !


पिछले पन्नों पर: आपने अन्नू बाबू का किस्सा पढ़ा...उनकी शख्सीयत के बारे में जो कुछ मुझसे बन सका...पूरी शिद्दत के साथ बयान करने की कोशिश की...लेकिन बहुत कुछ ऐसा है जो अभी कहा जाना बाकी है....पाठकों की भारी मांग पर अन्नू बाबू की जिंदगी के बहाने अपनी जिंदगी का एक औऱ पन्ना पेश कर रहा हूं....क्योंकि सूत्रधार जॉन डीकोस्टा की वो डायरी आज फिर कुछ कहने के लिए बेचैन है....

अब तक आपने पढ़ा--अन्नू बाबू कैसे अखबार में जाते थे...तहखाने में हाजिरी बजाते थे...पानीपत से लेकर भिवानी एडिशन के पन्नों पर सिर खपाते थे...और रात को लौटते वक्त साथियों के साथ किस तरह से बहस में उलझ जाते थे...अखबार का वो बॉस जिसकी जीभ पान मसाला खाते-खाते मोटी हो गई थी...वो किस तरह से अन्नू बाबू को घुड़कता था...और अन्नू बाबू किस तरह विनीत विनम्र भाव से उसके आगे सिर नवाते थे...(हालांकि बाद में अहसास हुआ कि कई बार ओढ़ी हुई विनम्रता के बाद भी असली तेवर झलक जाता करते हैं)

अब आगे---वो जाड़ों के दिन थे...कुहासा ऐसा कि दफ्तर से घर लौटने की सीधी सड़क भी रात के सन्नाटे में विचित्र लगती थी...मानो भूत की तरह आप धुएं को चीरते हुए बाहर निकल रहे हों...औऱ अगले ही पल इसी धुएं में कहीं गुम हो जाएंगे....

ऐसे ही घनघोर कुहरे औऱ खून जमा देने वाली ठंड के बीच अन्नू बाबू अपनी चिर परिचित विंड चिटर पहने माहौल को गरमा देने वाली बहस में शिरकत करते हुए सड़क पर लेफ्ट राइट कर रहे थे...घर जाने से पहले गोल चक्कर पर चाय औऱ परांठा वाले के यहां थोड़ी देर के लिए ही सही पर रुकना हमारा अक्सर का रूटीन था....उस रोज भी रुके थे....बॉस ने अन्नू बाबू को उस शाम खूब खरी खोटी सुनाई थी....मुद्दा अखबार के अंदर के पन्नों में किसी खबर की प्लेसमेंट को लेकर था....बॉस की नजर में अन्नू बाबू ने खबर को जो ट्रीटमेंट दिया था वो दो कौड़ी का था...उन्होंने तहखाने में गुर्राते हुए अन्नू बाबू को जमकर डांट लगाई.....वो माहौल भी अजब था....डांट अन्नू बाबू खा रहे थे लेकिन सांप बाकी सब को सूंघ गया था....शायद हिंदी अखबारों की भाई साहबी पत्रकारिता की ये भी एक मानसिकता है.....
(अब भाई साहबी पत्रकारिता क्या होती है---इस पर एक चैप्टर से सूत्रधार आपको आगे कहीं जरूर
रूबरू करवाएगा।)
बॉस ने अन्नू बाबू को डांट लगाने के बाद गुटखे का पूरा पाउच मुंह के हवाले किया औऱ कुछ मिनटों तक जुगाली करने के बाद परम संतोषी भाव से डस्टबिन को पीकदान समझ कर प्रसाद उड़ेल दिया....
अन्नू बाबू उस रोज बड़े विचलित थे...साली दो कौड़ी की नौकरी है....पता नहीं क्या समझता है अपने आपको....यार मिहिर छोड़ दूंगा....मेरे बस की नहीं....खेती ही कर लूंगा....लौट जाऊंगा यार.....
ये वाकया उसी रात का है.....दो बजे हम सब सी-१३ के साथी गोल चक्कर पहुंचे चुके थे औऱ चाय के साथ वाद विवाद का दौर गरम था....अन्नू बाबू कुछ कुछ उंघते हुए और अनमने से भाव के साथ बेंच पर बैठे थे...अचानक उठे....औऱ चल पड़े....सबने कहा---अरे अन्नू बाबू क्या हो गया...कहां जा रहे हो....उनका जवाब था नहीं यार सुबह की बस पकड़नी है.....
अगली सुबह अन्नू बाबू वाकई हम सबकी आंख खुलने से पहले निकल चुके थे....पहले भी नहीं बताते थे कि आखिर जा कहां रहे हैं और इस बार भी बताने की कोई जहमत नहीं उठाई
कुहासे को चीरते हुए वो कहां चले गए इसका अहसास हम सबको तब हुआ जब हम अलसाए से उठे....लेकिन अन्नू बाबू का इस तरह जाना हमें पहले भी नहीं चौंकाता था...इसलिए इस बार भी हैरान हो जाएं...ऐसी कोई वजह नहीं दिखी....
ठंड के दिन अभी खत्म नहीं हुए थे...अब भी सुबह कुहासे में लिपटी दस्तक देती थी....सुबह तो क्या दोपहर में ही सही पर उठने के लिए हमें पहले की तरह ही जतन करने पड़ते थे....यानी सी-१३ की दुनिया अब भी वैसी ही थी... जैसी पहले थी
ऐसी ही एक सुबह कुहासे को चीरता हुए अन्नू बाबू आ धमके...
अगर आग रात को देर से सोने वालों में शुमार हैं तो आप समझ सकते हैं कि सुबह-सुबह कॉलबेल की आवाज से कर्कश दुनिया में और कुछ नहीं लगता...
उस रोज भी वैसी ही आवाज से अपने अपने कमरों में हम सबका साबका पड़ा....लेकिन उठे तो कौन...ठंड के दिनों में लिहाफ से निलकना भी तो कम बड़ी चुनौती नहीं....लेकिन हम सबके साथ नियमों के पाबंद डॉक्टर साहब भी रहते थे औऱ जब सब सोते थे वो बड़े चाव के साथ अखबार पढ़ते थे....पढ़ें चाहें नहीं भी लेकिन उनके सिरहाने सारे अखबार करीने से सजे होने चाहिए.....सो डॉक्टर साहब भी चिहुंकते हुए उठे....अरे भाई पता नहीं सुबह सुबह कौन आ गया.....दरवाजे पर अन्नू बाबू को देखकर पल भर के लिए (हालांकि मैंने नहीं देखा...लेकिन तजुर्बा बताता है कि ऐसा ही हुआ होगा) डॉक्टर साहब चौंके होंगे...चश्मा ठीक किया होगा....अरे भाई कहां गायब हो गए थे....आप भी हद हैं बताते भी नहीं...और अचानक कैसे--दफ्तर में तो खबर भी उड़ गई कि आपने रिजाइन कर दिया है....अन्नू बाबू थोड़े तरोताजा जरूर थे....लेकिन एक साथ इतने सारे सवालों से खीझ गए....कहा-हद हो गई यार....पहले अंदर तो आने दो...फिर बताता हूं...अंदर आते ही बगैर किसी सवाल का जवाब दिए वो किचेन की तरफ हो ळिए....बड़ी उदारता के साथ जितना दूध बचा था....उसे चाय बनाने के लिए स्टोव पर चढ़ा दिया...
हालांकि उनकी ये हरकत डॉक्टर साहब को बेहद नागवार गुजरी होगी....लेकिन गुस्सा उतारें तो कैसे उतारें...वो बस इतना ही कह पाए....अरे भाई आप भी सुधरिएगा नहीं...कम से कम जूते तो खोल लेते.....अन्नू बाबू ने भी चिहुंकते हुए कोई जवाब दिया होगा.....खैर ये सिलसिला ऐसा कि इसमें बताने के लिए बहुत कुछ खास नहीं

खैर सवाल एक फिर भी बचा रह गया था---आखिर अन्नू बाबू उस रोज कुहरे में कहां गुम हो गए थे औऱ जिस तरह गुम हुए उसी तरह आज कुहासे को चीरते हुए कहां से आ धमके...

इसका जवाब सूत्रधार आपको जरूर बताएगा....लेकिन फिर कभी....पर सौ फीसदी वादे के साथ कि पिक्चर तो अभी बाकी है मेरे दोस्त.....
-जॉन डीकोस्टा की डायरी
पेज नंबर-6