नवभारत टाइम्स, दिल्ली के एक्जीक्यूटिव एडीटर और वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार अब इस संस्थान के हिस्से नहीं रहे। सूत्रों के अनुसार 58 वर्ष की उम्र पूरी हो जाने पर उन्होंने संस्थान से रिटायरमेंट ले लिया। ---हाल ही में एक वेबसाइट पर प्रकाशित खबर
खबर पढ़ते ही पता नहीं कब मन उन दिनों में भटकने लगा जब करिअर की शुरुआत कर रहा था....वे दिन निजी तौर पर मेरे लिए कला औऱ साहित्य के नाम पर इधर-उधर मगजमारी से ज्यादा कुछ नहीं थे...शाम का वक्त मंडी हाउस में गुजरता और दोपहर दोस्तों के साथ लंबी चौड़ी प्लानिंग में....ये वो दिन भी थे जब दो वक्त खाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती...गली से बाहर निकलते औऱ कल्लू पहलवान (वाकई उस दुकानदार का यही नाम था) के यहां जाकर बढ़िया बिल्कुल गाढ़ी लस्सी पीते...जिसमें पानी की एक बूंद नहीं होती...उसके पहले पूरी-सब्ज़ी का मजा लेना नहीं भूलते...पैसे रहे तो दे दिए नहीं रहे तो कोई बात नहीं कल तो मिल ही जाएंगे...घर लौटते वक्त ठेले (रेहड़ी) पर टूटे हुए केले दो चार खरीद लिए...ताकि इमरजेंसी में काम आ सकें.....हां सिगरेट (बड़ी वाली गोल्डफ्लेक ) का स्टॉक खरीदना हममें से कोई नहीं भूलता....(हालांकि अंबुमणि रामदौस की सख्ती से बहुत साल पहले सिगरेट पीनी छोड़ चुका हूं....पता नहीं क्यों सिगरेट पीना मुझे हमेशा बेवजह लगा....सिगरेटखोरी में कई लोगों को मज़ा आता है....पर मुझे कभी कोई स्वाद नहीं लगा)
ऐसे ही फाकामस्ती के दिनों में जब भविष्य की फिक्र सताने लगी.....तो एक रोज बस पकड़कर नोएडा चला गया...गोलचक्कर पर उतरा औऱ फिर वहां से सेक्टर आठ के लिए रिक्शा लेकर एक अखबार के दफ्तर पहुंच गया....न्यूज रूम के नाम पर रोमानी हो जाएं ऐसा कुछ भी उन दिनों नहीं था.....एक बड़ा सा हाल...दीवारों का प्लस्तर जहां तहां से उधड़ा हुआ....जिसमें बीच का हिस्सा खाली औऱ किनारे किनारे डेस्क....(डेस्क के नीचे डस्टबीन....जो बाद में पता चला कि पीकदान बन गए हैं) काम करने वाले लोगों ने उचटती निगाहों से देखा....कोई नया है सोचकर ज्यादा भाव ना मिलना था औऱ ना ही मिला....मई-जून का महीना रहा होगा....धूप ऐसी जबरदस्त कि पसीने छूट गए....मन ही मन ये भी सोचा इससे अच्छा तो घर पर एक नींद ही मार लेता....खैर वहीं हॉल के बाहर रिसेप्शन नुमा जगह पर बैठ गया....क्योंकि प्रदीप जी अभी तक आए नहीं थे.....
थोड़ी देर बाद आए....उनसे मुलाकात हुई....मेरा टेस्ट लिया गया....(कुछ पन्ने अनुवाद कराए....इंग्लिश से हिंदी) ऊपरवाले की दया से मेरा अनुवाद उन्हें बेहतर लगा....औऱ इस तरह मिल गई मुझे जिंदगी की पहली नौकरी.....जब लौट रहा था तब सूरज ढल रहा था....उस दिन मुझे आसमान जितना खूबसूरत लगा उतना कभी नहीं लगा....अजीब सी खुशी....नौकरी दो हज़ार की मिली थी...दिल्ली जैसे शहर में दो हजार रुपये की पगार 1995में कम नहीं थी....नहीं कुछ से अच्छा था कि चलो कुछ तो आ रहा है...घर वालों के लिए भी इत्मीनान दिलाना जरूरी हो चला था....
खैर इस तरह प्रदीप जी से मेरा साबका पड़ा...प्रदीप जी से सीखने के लिए हजारों चीजें थीं...भाषाई झोल उन्हें कतई गवारा नहीं था....अनुवाद को लेकर बेहद आग्रही...अगर किसी ने पीटीआई की कॉपी का बंटाधार किया तो भरे न्यूज़रूम में फजीहत से उसे कोई बचा नहीं सकता....लेकिन इतने साल इस धंधे में गुजारने के बाद ये जरूर कहना चाहूंगा कि प्रदीप जी का खुद का अनुवाद भी बेहद सधा हुआ...सलीकेदार था...रौ में लिखें तो कविता से कम नहीं....खासतौर से दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव के मामले में जज प्रेम कुमार का फैसला आया था....उस फैसले में जज ने गीता या किसी और धर्मग्रंथ के किसी श्लोक का हवाला दिया था....फर्ज कीजिए कि श्लोक संस्कृत में रहा होगा....जज ने अंग्रेजी में फैसला लिखा होगा...श्लोक का अंग्रेजी में अनुवाद किया होगा....औऱ फिर खबर में इसी का प्रदीप जी ने हिंदी अनुवाद किया तो मानो कविता रच डाली....(शीर्षक कुछ इस तरह से था---काल कर देता है सबका संहार)
उन्हीं प्रदीप जी के रिटायरमेंट लेने की खबर पढ़ी तो यकीन नहीं हुआ...क्योंकि अखबारों में मंदी के नाम पर जो कत्लेआम मचा हुआ है...उसने अंदर से खोखली पर बाहर से चमकीली दिखने वाली इस दुनिया के शीशमहल को छन्न से तोड़ दिया है....बड़े बड़े नाम मिनटों में दफ्तर से बेदखल कर दिए गए....ऐसे में कब किसके साथ क्या हो जाए कहना मुश्किल है.....जहां तक प्रदीप जी की बात है उन्होंने सैकड़ों लोगों के साथ काम किया.... कई को नौकरी दी....कई की नौकरी ली....अखबारों से लेकर टीवी सभी माध्यमों में मंजे...और बहुतों को मांजा.... हो सकता है कईयों का तजुर्बा उनके साथ अच्छा नहीं रहा होगा....कईयों की नज़र में वो विलेन भी रहे होंगे....लेकिन मैंने उनके जिस पहलू को जाना....जिसके कारण उनको अपने गुरु की तरह माना...वो पहलू मन के किसी कोने में हमेशा बरकरार रहेगा.....
वैसे भी ये धंधा बड़ा निर्मम है इसमें कोई अजातशत्रु नहीं होता.....
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5 comments:
अच्छा लगा प्रदीप जी के विषय में जानना और आपके संस्मरण को पढ़ना. सबके प्रति सबके अपने निजी अनुभव होते हैं, यह सत्य है.
सही कहा आपने।ये तो पत्रकार भ्रम पाल लेते हैं कि अख़बार उनकी वजह से चल रहा है।वैसे इस धंधे मे एक फ़ायदा ये भी है कि अगर ब्रांड की परवाह न करें तो आदमी कभी रिटायर हो नही सकता।
very good artilce. i have worked with pradeep ji, he is really great journalist
मिहिर जी ! मुझे लग रहा है की एक दिन आप मीडिया पर कोई उपन्यास जरूर लिख डालेंगे और सबकी पोल पट्टी खोल देंगे / अपने पेशे के बारे में लोग बेबाक टिप्पणी नहीं करते , दबी जुबान से बातें करते हैं और लिखते तो नहीं ही हैं / आपका ब्लॉग अक्सर पढता हूँ / बड़ा ही अपनापन सा लगता हैं क्योंकि आपके लिखने की शैली में जड़- जमीन का लगाव नज़र आता है / नोस्टाल्जिया भी है / बहुत खूब सर /
आज बैठे बैठे हो रहा है आभास ; दिल करहाता है मन है उदास, वक़्त की तीक्ष्ण श्न्हों मैंने सहा, सोचा ना ज्यादा बस चलता रहा . ज़िन्दगी में ऐसा भी कभी कभी होता है , आँखों में आँसू तो नहीं पर दिल तो रोता है.
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