Thursday, January 8, 2009

जरा उन 53000 लोगों के बारे में भी सोचिएगा!!!

जो कल तक अभेद्य किले दिखते थे वो सेकेंडों में रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर पड़े...जिनकी नींव सबसे ठोस मानी जाती थी...वहां एक ऐसी अंधी सुरंग निकली जिसमें लाखों निवेशकों का भरोसा दफन हो गया....लेकिन फिक्र यहां नहीं है---बाज़ार है तो घाटा भी होगा...मंदी के इस दौर में ना जाने कितने डूब गए औऱ कई वैसे भी हैं जो बन गए...
यहां चिंता उन तिरेपन हजार लोगों की है जो कल तक ऊंची तनख्वाहों पर जीते थे....लेकिन सत्यम के असत्य ने झटके भर में जिनका आशियाना तिनकों की तरह बिखेर दिया...आईटी सेक्टर में नौकरियों के लिए कुछ ही घंटों में बत्तीस हजार से भी ज्यादा अर्जियां इंटरनेट के जरिए नौकरी मुहैया कराने वाली कंपनियों की साइट पर पहुंच गईं...
हमारे दौर का इससे भयावह सच और कुछ नहीं हो सकता....महंगी पढ़ाई करने के बाद किसी ब्लूचिप कंपनी में और वो भी सत्यम जैसी नामी गिरामी हो तो फिर कहने क्या...लेकिन सुकून का अहसास भी कभी कभी कितना फर्जी होता है---ये जरा पूछना हो तो उन तिरेपन हजार लोगों के मन में भी झांककर देखिएगा जो सत्यम में काम करते थे....
आखिर गलत कहां हुआ....सबकुछ तो ठीक था...सबसे बढ़िया मानी जाने वाली नौकरी...सुरक्षित भविष्य औऱ अपने अपने आस -पड़ोस में वे सब रोलमॉडल भी तो रहे होंगे...तनख्वाह अच्छी तो घर भी अच्छा ले ही लिया होगा...और अच्छा घर लिया हो तो ईएमआई भी अच्छी कटती ही होगी...बड़ी गाड़ियों को बड़ी करने की होड़ में भी कई जुटे हुए होंगे....लेकिन चंद झूठ ने एक साथ हजारों कर्मचारियों की जिंदगी को दांव पर लगा दिया....
आप अगर बड़ी जगहों पर काम करते हों...तो आलीशान दफ्तरों में बैठने के बाद कई बार हकीकत की सख्त जमीन से वास्ता छूट सा जाता है...ऐसा भी होता है जब आप अपनी बनाई ही दुनिया में जीने लगते हैं....लेकिन यही दुनिया जब मुट्ठी से फिसलने लगे तो इससे क्रूर मजाक कुछ और नहीं हो सकता...सत्यम के उन तिरेपन हजार साथियों के साथ भी यही हुआ....
खैर संकट की इस घड़ी में हम कर भी क्या सकते हैं....सिवाय इसके कि पूरी आस्था के साथ उनके लिए प्रार्थना करें....
इसलिए हो सके तो तो आप भी रोजमर्रा की भागती-दौड़ती जिंदगी में फुर्सत के कुछ पल संजोकर जरा उनके बारे में सोचिएगा....उन तिरेपन हजार लोगों के बारे में जरूर सोचिएगा....क्योंकि ये सच कल होकर किसी का भी हो सकता है....

5 comments:

अजित वडनेरकर said...

आपने बहुत अच्छा लिखा है। सत्यम के कर्मचारियों के अलावा भी बहुत से लोग हैं जिनका भविष्य इससे जुड़ा हुआ था। हालांकि कर्मचारियों अभी बने रहेंगे। कुछ समय रहते छोड़ जाएंगे। कुछ को तनख्वाह में कटौती का सामना करना होगा।

दिनेशराय द्विवेदी said...

कंपनियों की दुनिया फानी है। यह चलती रहती है। जब तक फन असली हैसियत को छुपाए रखता है। वास्तविकता तो यह है कि ज्वाइंट स्टॉक कंपनियों का माया जाल ही ऐसा ही है। मैं ने अपने जीवन में कोई ऐसी कंपनी नहीं देखी है जिस की बैलेंस शीटों में हेराफेरी न होती हो।

कंपनियों के बनने से ले कर उन के अंत तक उस का शिकार सबसे पहले मजदूर और उस के बाद छोटे व्यापारी और उद्योगपति होते हैं। और वे भी अपने संकटों को कुल मिला कर अपने कर्मचारियों पर ही डालते हैं। इस फानी दुनिया में जब भी कोई संकट आता है तो मजदूर कर्मचारियों ने ही उसे सहा है।

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

सत्यम ने दिखला दिया, अर्थनीति का चेहरा.
रोना पङे जुआरी को, क्या सरकारी पहरा.
क्या सरकारी पहरा, कोई नहीं बचाये.
व्यक्ति-समाज-राष्ट्र सभी को धर्म बचाये.
कह साधक कविराय,दिखाया सच सत्यम ने.
अर्थ्नीति का चेहरा, दिखलाया सत्यम ने.

atit said...

मिहिर सर, सत्यम का सत्य इतना सीधा सादा नही है, जैसा आपने लिखा है या जैसा लोग समझना चाह रहे हैं। दरअसल ये आपकी लिखी सीधी लाइनों से भी सीधा है। असल में तो ये सिर्फ़ एक शब्द है-लालच। पूंजीवाद में जीते हम लोग सिर्फ़ पूंजी औऱ उससे ख़रीदी जा सकने वाली चीज़ों के बारे में सोचते हैं। ज़्यादा इकट्ठा करना चाहते हैं। ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाओं का भोग करना चाहते हैं। चाहते हैं कि पूंजी की दौड़ में हम सबसे आगे हों। सत्यम के अ जेंटलमैन राजू हों या फिर उनकी कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स। सब की नज़र अर्जुन की तरह सिर्फ़ एक जगह थी। ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा। कहीं से भी आए। कर्मचारियों की ग़लती ये है कि वो भी उसी ज़्यादा से ज़्यादा हासिल करने की ख्वाहिश के पाबंद बन गए थे। राजू चाहते थे साम्राज्य खड़ा करना। उनके डायरेक्टर चाहते थे मोटी तनख्वाह और ज़बरदस्त मुनाफ़े में हिस्सेदारी। और कर्मचारी अपनी औकात के हिसाब से मोटी तनख्वाह। अब आसमान टूटा है तो सब पर गिर रहा है। राजू पर ज़्यादा गिरेगा। जेल जाएंगे। सज़ा भी हो सकती है। अब वो जेंटलमैन न रहेंगे। सत्यम के बोर्ड के निदेशकों का भी कोई नामलेवा न रहेगा। कर्मचारियों को तो फिर भी कहीं नौकरी मिल जाएगी। पर मार्क्स के समाजवाद से मुंह मोड़ने का खामियाज़ा तो हमें उठाना ही होगा। जो आज सत्यम में हो रहा है वो अमेरिका में भी देखने को मिल रहा है। हम उन अमेरिकियों को अपना रोल मॉडल बना बैठे जिनका अपना कॉरपोरेट गवर्नेंस, क्या गुल खिला रहा है किसी से छिपा नहीं। अरबों की कंपनियां मिट्टी में मिल रही हैं। वो भी उसी एक लफ़्ज़ लालच का शिकार थीं। मुनाफ़े की चाहत ने उन्हें अगर अंधा बनाया तो अंधे कुएं में जाना ही था। अब सत्यम का यही सत्य हमारे सामने भी उसी सच की तरह सामने खड़ा है जैसे कभी सुरसा का मुंह लंका में घुसने की कोशिश कर रहे हनुमान के सामने था।
अभी इसका काट निकलना हमारे लिए बाक़ी बड़ी चुनौतियों में से पहली है।

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

आपसे पूरा सहमत हूँ अजित जी.
मूल समस्या जीवन के प्रति दृष्टिकोण की है.
पश्चिम की भोगवादी सोच ने संयम, त्याग,संतोष आदि दैवीय सम्पत्तियों से दूर कर दिया.
इसे वापस प्रतिष्ठित करना ही इन्डिया को हटा कर भारत को स्थापित करना है...उम्मेद साधक