Monday, January 12, 2009

पर कितना मुश्किल है भूल जाना...

सालों पहले जब दिल्ली में रहने के बाद पटना लौटा था तो वहां का रेलवे स्टेशन विचित्र लगा था...क्योंकि आंखों में तब नई दिल्ली का लंबा-चौड़ा स्टेशन बसा था जिसमें कई प्लेटफॉर्म औऱ दिन-रात गुजरती ट्रेनों से उतरते मुसाफिरों का कभी ना खत्म होने वाला रेला सिर को चकरा देता था...
सालों पहले जब धूमिल और मुक्तिबोध को पढ़ता था....रातें गोरख पांडे औऱ सर्वेश्वर की कविताओं को पढ़ने में गुजर जाती थीं और सुबह कभी ग्यारह बजे से पहले नहीं होती थी...तब और अब के दौर में बहुत कुछ बदल चुका है....दिल्ली का मौसम बदल गया है और बदला है सड़कों का हुलिया...आबादी बढ़ी है...और अब बारिश के दिनों में भी बारिश का इंतजार रहता है....ठंड के दिनों में कंपा देने वाली ठंड अब क्यों नहीं पड़ती, नहीं मालूम...अंदर झांकता हूं तो ऐसा लगता है मानो दिल्ली का नक्शा और मौसम ही नहीं...अपना खुद का मिजाज भी बदल गया है...
लौटता हूं कई साल पीछे तो याद आता हैं वो मौसम जब बारिश के दिनों में ब्लूलाइन की ५०१ नंबर की बस पकड़ी थी...बूंदा बांदी हो रही थी...सड़कें भीग चुकी थीं...और कपड़े सील से गए थे...दिल्ली तब अजनबी लगनी बंद हो चुकी थी...लेकिन आंखें नई चीज को देखकर चौंकने लेकिन छिपाने वाली कोशिश तब भी करती थीं....पर तब तक मैं इस अजनबी से शहर को अपना चुका था...अजनबियों की भीड़ का हिस्सा बन चुका था....और ये बेतुका ख्वाब भी देखता था कि एक दिन पूरे शहर को फतह कर लूंगा.....
उस भीगे दिन जब बस आखिरी स्टॉप पर उतरी थी तब वहां से बरफखाने की बस पकड़ी औऱ पूछता-पाछता पहुंच गया सब्ज़ीमंडी....
वो इलाका जहां पहुंचकर ऐसा लगा- मानो इस दिल्ली का कनाट प्लेस की दिल्ली...हुमायूं रोड-शाहजहां रोड और फीरोजशाह रोड जैसे इलाकों से कोई रिश्ता ही नहीं....उसी सब्जी मंडी में एक था इंदिरा मार्केट जहां बीजों और पेस्टिसाइड्स की दुकानें थीं...औऱ इन्हीं दुकानों के पीछे से गुजरती थीं कई गलियां....जिनमें से एक थी गली करतार...वही गली जो मेरे ब्लॉग का नाम है....वही गली जो आज भी मन के कबाड़खाने में कहीं चोरदरवाजों के पीछे छिपी है
बारिश तेज़ हो चुकी थी...दुकानों के छज्जों में बारिश से खुद को छिपता-छिपाता....किसी तरह वहां पहुंचा जहां मुझे जाना था....बारिश के मौसम में बादलों से ढंके आसमान का घुप्प अंधेरा बड़ा अजब होता है...ऐसा ही अंधेरा उस रोज भी था...सारे सामान के साथ गली करतार के उस मकान में पहुंचा जहां औऱ भी कई साथी रहते थे...कुछ थे जो डीयू में पढ़ रहे थे....तो कुछ थे जो ब्रिटिश स्कूल ऑफ लैंग्वेज में अंग्रेजी सीख रहे थे...उनमें से हरेक का सपना दिल्ली फतह करने का ही था....लेकिन जो दिल्ली मुगलों से लेकर तमाम राजे-महराजे और फिर अंग्रेजों की नहीं हो सकी...जिन्होंने कई बार इसपे जीत हासिल की औऱ आखिर में हार गए...वो हमारी क्या होनी थी...सो नहीं हुई....
लेकिन मुझे जरूर ऐसा माहौल मिल चुका था...जहां मैंने जिंदगी के कई अंधेरे-उजाले देखे...कविताओं का चस्का लगा...धूमिल की कविताएं कंठस्थ हो गईं औऱ मुक्तिबोध को आर-पार पढ़ डाला....निराला तब भी अच्छे लगते थे...औऱ आज भी...
खैर...नॉस्टैलजिया अक्सर नशे की तरह होता है...आप जितना डूबेंगे...डूबते चले जाएंगे....
आज की ये पोस्ट भी इसी की उपज है
क्योंकि भूलना मुश्किल होता है
बहुत मुश्किल...
अगला किस्सा फिर कभी....

1 comment:

shama said...

Mai aapke blogpe doosaree baar aayee hun...pehlee baar tippanee dete, dete server down ho gaya tha..use arsa ho gaya..zindageeki apnee raftaarke tehet aaj dobaara aayi hun!
Awwal to aapne mere blogpe diye commentke liye shukrguzaar hun.
"Par kitnaa Mushkil hai bhool jaana " padhke, mai khud na jaane aisi kin kin, puraani galiyon me kho gayi..lakdeeka choolhaa, aur chimnise uthatee dhueki lakeerse leke, kal parson tak man ne belagam daud laga lee...
Gautam Goswami ke baaremebhi padha aur apne ek qareebi dost, IAS ke afsar, unki cancer se huee mrityu yaad aagayi. Kul ekhi saal huaa us ghatnaako...aur unki lajawab himmat yaad aa gayi...ek sahi vipashyanaka sadhak aankhonke saamne unhon ne khada kar diya. Ant tak kiseebhee sahkareeko pata nahee chalne diya ki wo kis beemaareese jhoojh rahe the...harwaqt, hansmukh, doosronkaa haalhee poochhte rehte..
Haan, kayi baaten bhool jana behad mushkil hai...aur vigatme doob jao to doobtehee chale jaate hain...