जॉन डीकोस्टा की डाय़री के इस पन्ने के लेखक हैं रवि बुलेरवि बुले का परिचय-हिंदी में नई कहानी के नए दौर की नींव मजबूत करने में रवि बुले शिद्दत से जुटे हुए हैं.....फिलहाल मायानगरी में सक्रिय...फिल्मों का नया व्याकरण गढ़ने की बेचैनी इन दिनों उनकी पहली प्राथमिकता है...देश के कई नामी गिरामी अखबारों से जुड़े रहे...सूत्रधार जॉन डीकोस्टा के विशेष आग्रह पर बुले जी ने वृतांत का ये अध्याय जोड़ा है....आगे भी गली करतार के पाठकों को बुले जी की लेखनी का जादू देखने को मिलता रहेगा- जॉन डीकोस्टा की डायरी का पेज नंबर-7
अन्नू बाबू अपने आस-पास एक कोहरा-सा लिए चलते थे!! ...और अकसर उसमें गुम हो जाते थे। ये उनके व्यक्तित्व का अनूठा रहस्य था। कभी कमरे में बैठे-बैठे। कभी ठंड या बे-मौसम रजाई में दुबके। किसी गर्भस्थ शिशु-सा अपने पैरों को छाती से सटाए। मगर उनके जूते रजाई में से सदा झांकते रहते। ऐसा लगता कि मानो ये आदमी रजाई के बाहर अपने जूते छोड़ कर भीतर किसी गम भरी दुनिया में खो गया है!! परंतु कभी यह भी लगता कि अन्नू बाबू ने ये जूते दुनिया के मुंह पर दे मारने के लिए छोड़े हैं। क्या अन्नू बाबू अपने कोहरे में से वापस लौट कर, उन्हें सताने वाली 'जॉर्ज-बुशी-दुनिया" के मुंह पर जूते मारेंगे? हालांकि अन्नू बाबू ने अपना "क्षत्रियत्व" कभी जाहिर नहीं किया। तब भी नहीं, जब वे उस रोज सुबह कोहरे को चीरते हुए लौटे और सी-13 के दरवाजे पर डॉक्टर साहब से दरवाजे पर उनकी मुठभेड़ हुई!! अखबार के तहखाना-दफ्तर में अन्नू बाबू हर शाम खुद को अगर थोड़ा घिसने के लिए जाते थे, तो ये उनकी मजबूरी थी। गिरगिटिया आंखों वाले बॉस के सामने रंग बदलना अन्नु बाबू ने सीख लिया था! यह सहज ही हुआ या यह उनके भीतर छुपा एक और रहस्य था? अन्नू बाबू रंग बदलने का अपना रहस्य खैनी की पीक के साथ दफ्तर के डस्टबीन में ही उगल आया करते थे। अन्नू बाबू अपने रहस्यों को सात परदों में छुपा कर रखते थे। मगर, डॉक्टर साहब में हर बात को बेपरदा करने की जिद थी!! आंगन की गुनगुनी गुलाबी धूप में सदा चलने वाली दोनों की इसी रस्साकशी में एक दिन यह सवाल पेश हो गया कि क्या अन्नू बाबू "वृषण-जल-रोग" के शिकार हो गए हैं? डॉक्टर साहब ने सार्वजनिक रूप से अन्नू बाबू के सामने गर्जना की... जाइए भाई इसमें चीरा लगवा के आइए...।अन्नु बाबू सन्न और निरुत्तर!! ये तो पहले से साफ था कि जिस तहखाने में अन्नू बाबू नौकरी बजाते थे, वो अखबार का वृषण था। उसमें जल की सी ठंडक सदा मौजूद रहती थी। जिसे तहखाने में मजूरी करने वाला हर व्यक्ति मफलर-सा लपेटे रहता था। अगर कभी किसी ने ठंड को लेकर शिकायत की और अपना तापमान बढ़ाया, तो गिरगिटिया आंखों वाला बॉस उसे सामने की सीढिय़ां दिखा देता! सभी सीढिय़ां स्वर्ग को तो नहीं जाती!! ...और बारह महीनों, चौबीस घंटे ठंड खाकर भी लोग जिंदा रहते हैं!! अन्नू बाबू भी जिंदा थे। "वृषण-जल-रोग" के साथ!! जिन दिनों अन्नू बाबू कुहासे को चीरते हुए कहीं चले गए थे, तब तमाम चर्चाओं के बीच एक चर्चा यह उठी कि कहीं वे वृषण में चीरा लगवा कर समस्या से छुटकारा पाने तो नहीं चले गए? नौकरी में लगातार परेशान होते अन्नु बाबू शिद्दत से महसूस करने लगे थे कि तहखाना अखबार का वृषण है। गिरगिटिया बॉस अखबार मालिकों का वृषण है। मगर वे अपने वृषण से हैरान थे। कभी कभार वे क्रोध में आकर एक साथ इन सबसे निजात पाने को उतावले हो जाते। परंतु उनके भीतर एक संत भाव भी था। जो तस्वीरों में गांधी जी के चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता है। अन्नु बाबू को इतना क्रोध कभी नहीं आया कि वे अपने जीवन में मौजूद तमाम वृषणों पर कोई निर्णय ले पाते। एकांत में विचार करते हुए वे अकसर अहल्या की तरह पत्थर के बन जाते...!क्या अन्नू बाबू किसी शाप से ग्रस्त थे...?ज्यादातर पुराण कहते हैं कि गौतम ऋषि अपनी पत्नी अहल्या और उसे बहका कर बलात्कार करने वाले इंद्र को शाप देकर किसी कोहरे में खो गए थे! परंतु लिंग पुराण में दर्ज इस कथा में थोड़ा ट्विस्ट है। यहां गौतम इंद्र को सिर्फ शाप नहीं देते। बल्कि क्रोध में आकर उसे जमीन पर पटकते हैं और उसके वृषण उखाड़ लेते हैं!! गौतम के पौरुष की गवाही सिर्फ इसी पुराण में है। एकांत में विचार करते हुए अहल्या-से बन जाने वाले अन्नु बाबू के पौरुष की गवाही क्या किसी किस्से में आएगी...? जॉन डीकोस्टा की डायरी के आगे के पन्नों में इस पर से परदा उठेगा...
जॉन डीकोस्टा की डायरी
पेज संख्या-7
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