Saturday, October 25, 2008

...फिर नींद रात भर क्यूं नहीं आती!

सपने, बाइक और सी-१३ का आखिरी कमरा
नींद से नींद का सफर कैसा होता है...ये कोई अन्नू बाबू से सीखे...सोने से प्रिय कुछ भी नहीं...शायद इसलिए कि सपनों से उन्हें बहुत लगाव था....लेकिन सपने, बाइक और सी-१३ के आखिरी कमरे में ही जिंदगी तो नहीं चलती...अखबार के तहखाने में हाजिरी भी लगानी तो पेट के लिए जरूरी थी....

तहखाने में चापलूसी, चापलूसों में अन्नू बाबू....
भाई साहबी पत्रकारिता के दिन....न्यूजरूम नुमा तहखाना...अमूमन किसी छोटे मोटे कारखाने की तरह नज़र आता....जहां एक कोने में बैठा बॉस रूपी सुपरवाइजर लगातार जुगाली करता रहता....मोटे चश्मे से झांकती आंखें अखबारो में कुछ तलाशतीं...वो खीझता...अरे यार क्या हेडिंग लगा दी...गजब की सूंघने की शक्ति पाई थी उसने...पता नहीं उसे कैसे आभास हो जाता कि ये काम अन्नू बाबू का ही है....फिर क्या था....टेबल के इस पार खड़े होकर अन्नू बाबू को देर तक प्रवचन सुनना पड़ता....लेकिन जरा ठहरिए ये मत सोचिएगा कि वो बॉस वाकई अन्नू बाबू को लेकर बेहद क्रूर था...खुद अन्नू बाबू ने एक बार दोस्तों के सामने गवाही देते हुए कहा था कि बॉस तो उन्हें बेहद मानता है...लेकिन क्या करोगे भाई नौकरी की भी तो अपनी मजबूरी होती है...(यहां सूत्रधार ये साफ करना चाहेगा कि जिस बॉस का वर्णन हो रहा है वो किसी खास व्यक्ति की ओर इंगित नहीं है...बल्कि अखबारों में तो ये परंपरा सालों से परवान चढ़ रही है...) जैसा कि आपने अभी जान लिया कि बॉस अन्नू बाबू को फटकारता जरूर था लेकिन उसे मानता भी था...तब सवाल ये उठता है कि आखिर अन्नू बाबू मात कहां खा जाते थे....तो इसके लिए अब वापस लौटते हैं भाई साहबी पत्रकारिता के उन सुनहरे दिनों की ओर.....तहखाने में तब बड़ा कॉमन था....बॉस के तमाम करीबी जमकर भाई साहब को मक्खन लगाते...अरे भाई साहब आपने क्या हेडिंग लगाई....तो कोई दो कदम आगे रहने की स्टाइल में बोल पड़ता ...भाई साहब आपकी कमीज तो बड़ी शानदार लग रही है...कोई भाई साहब को पुराने दिनों की याद दिलाता...न्यूज रूम को ये अहसास कराता कि भाई साहब तो बड़े महान पत्रकार हैं....उनकी रिपोर्ट पर कितना हंगामा हुआ था...सरकारें कैसे हिल गई थीं...प्रशासन कैसे थर-थर कांपता था....महिमामंडन का ये वो दौर था जिसमें अन्नू बाबू भीड़ में शामिल जरूर दिखते ...लेकिन अंदर ही अंदर एक बेचैनी उनमें उबाल मार रही होती.....तो क्या इस बेचैनी में भी कभी उफान आता है...
ये जरूर बताएंगे...लेकिन सूत्रधार जॉन डीकोस्टा को फिलहाल दीजिए इजाजत

जॉन डीकोस्टा की डायरी, पृष्ठ संख्या-5

5 comments:

Udan Tashtari said...

इन्तजार रहेगा...ले लिजिये एक रेस्ट.

आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

chand shabdo ne kaha said...

बहुत अच्छा...भाईसाहबी पत्रकारिता को मजेदार ढंग से पढ़ने को मिला...अब अगली किस्त का इंतजार रहेगा.... कुछ टीबी पत्रकारिता पर भी रोशनी डालिए...

Anonymous said...

अन्नू बाबू का खून भी कृपाण वाला या तिलक वाला था और वो मोटा थुलथुला कई तरह की कहानियों से घिरा बोस भी अपने आपको कृपाण वाली या तिलक वाली बिरादरी की ही मानता था, हो सकता है इसीलिये अन्नू बाबू को मन से चाहता हो। मैं तो बस अंदाज़ लगा रहा हूं क्योंकि अखबारों की दुनिया के गणित और समीकरण इससे आगे कहां बढ़ पाये हैं हैं मिहिर बोस। आपका लिखने का अंदाज़ कमाल का है यार। कभी-कभी आगे की कड़ी के इंतज़ार से बचने के लिये सोचता हूं कि जब डायरी पूरी भर जाये तब एक साथ ही पढ़ूं क्योंकि मैं आप लोगों को जानता हूं, पूरी तरह से तो नहीं हां कुछ-कुछ। इसलिये सबसे ज़्यादा इंतज़ार मुझे ही रहता है आपके लिखने का।

Unknown said...

अरे डिकोस्टा साहब , आपने तो अपनी डायरी के पन्ने बंद ही कर दिए लगते हैं । आपकी डायरी के पन्ने पढने का तो चस्का लग गया है । कुछ नया मसाला तो दीजिए ।

shree prakash said...

good...remembring those days..