ये शीर्षक अपने दोस्त जैगम इमाम की कविता से उधार लिया है...ये गुस्ताखी मुझे करनी पड़ी...क्योंकि जब वो रौ में अपनी नज्म सुना रहे थे तो रहा ना गया....पंक्तियां यूं ही ले लीं...लेकिन इनके पीछे का फलसफा बाद में समझ में आया....जिंदगी के चौराहे पर कभी आप ठिठक जाएं तो ये फलसफा आप भी समझ जाएंगे...खैर छायावादी बातों का कोई मतलब नहीं क्योंकि जब जिंदगी दो जोड़ दो बराबर चार के नजरिए से जीनी हो तो वहां ना तो वहां कोरी भावुकता का कोई मतलब होता है औऱ ना ही रोमानी सपनों का...सामने होती है सिर्फ हकीकत की सख्त जमीन...
लेकिन हकीकतों का तानाबाना भी तो अजब होता है....कई बार हकीकतें कल्पना की दुनिया से ज्यादा रपटीली होती हैं...ज्यादा घुमावदार होती हैं....कई बार वाकई आपको समंदर प्यासा मिल सकता है...कई बार खामोशी भी चीखती मिलती है...और चीख में भी सन्नाटा गूंजता है....
इस सन्नाटे का कोई मर्म नहीं होता....कई बार सन्नाटे गाते हैं....कई बार आपको भीतर तक कंपकंपा जाते हैं...कभी किसी पुराने पड़ गए घर की छत पर काई लगी बदरंग दीवारों और मुंडेरों से दुनिया देखिए तो वहां से आपको दुनिया अलग दिखेगी....लेकिन कभी किसी बहुमंजिली इमारत की किसी ऊंची सी मंजिल के शीशों से झांकिए तो नज़ारा दूसरा होगा...
खैर अपना दर्शन आप पर थोपूं...ये भी ठीक नहीं...
फिलहाल तो इस समंदर को प्यासा ही रहने दीजिए...
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4 comments:
bahut sahi kaha mihir jee...jeevan ka samajna kaafi tedhi khir hai..iska apna falsaffa hai....
bahut acchi rahi aapki ye post..
शायद समुंदर प्यासा ही रहता है दुनिया की तमाम नदिया भी उसकी प्यास नही बुझा पाती. पता नही बात क्या है
आपके अनुभव अपने से लगे।
बोफ्फाइन। हम भी नहीं पीते कुछ, प्यास अच्छी है।
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