Sunday, June 14, 2009

हो सके तो माफ कर देना...

हो सकता है आज सुबह आप जब चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ रहे हों तो ये खबर कहीं किसी कोने में दिख जाए....खबर का शीर्षक कुछ इस तरह से हो सकता है...सिर में चोट लगने से मजदूर ने दम तोड़ा....बहुत मुमकिन है कि तीन चार लाइनों की ये खबर अखबार में फिलर (खाली जगह भरने के लिए) की तरह इस्तेमाल की जाए...

खबर मामूली होगी और आप गौर करने की जहमत क्यों उठाएं...आखिर दिल्ली की दौड़ती भागती सड़कों पर हादसे होते रहते हैं लेकिन हममें से कितने ठहरते हैं...हो सकता है पल भर के लिए थमते हों...लेकिन फिर उचटती निगाह से जायजा लेकर...या तमाशबीनों की भीड़ में किसी एक से रुटीन सा सवाल कि भाई साहब क्या हुआ है...पूछकर ज्यादातर चलते बनते हैं...
लेकिन ये वाकया ऐसा नहीं है...आप चलते भी बने तो ये आपका पीछा नहीं छोड़ेगा...
क्योंकि उसकी लाश अब भी अस्पताल के सीलन से भरे सर्द मुर्दाघर में औपचारिकताओं का इंतजार कर रही होगी...क्योंकि ये पूरी कहानी जीते-जागते आदमी के चंद घंटों में दम तोड़ने की है....ये अस्पतालों की बेरहमी के उस भयावह सच की एक औऱ खौफनाक दास्तां है...जिससे हम सबका साबका आए दिन पड़ता रहता है...कैलाश नाम का एक मजदूर काम करते वक्त छत से नीचे गिरकर घायल हो जाता है...सिर में गंभीर चोट लगती है और उसे आनन फानन में रोहिणी के अंबेडकर अस्पताल ले जाया जाता है...वहां के डॉक्टर हाथ खड़े कर देते हैं....मामूली मरहम पट्टी करके दिल्ली के बड़े अस्पतालों में शुमार आरएमएल हॉस्पीटल रेफर कर दिया जाता है....आरएमएल में जख्मी मजदूर को भर्ती नहीं किया जाता...बल्कि बहानेबाजी कर दूसरे बड़े अस्पताल एलएनजेपी भेज दिया जाता है....एलएनजेपी अस्पताल में भी किसी डॉक्टर का दिल नहीं पसीजता....इस बीच, कैट के एंबुलेंस में स्ट्रेचर पर पड़े कैलाश की हालत लगातार बिगड़ रही होती है....दोपहर रात में तब्दील हो चुकी होती है...डॉक्टरों को भी छुट्टी चाहिए शनिवार की शाम है...वीकेंड्स बर्बाद क्यों करें....क्या फर्क पड़ता है कोई मरे तो अपनी बला से...कैलाश कोई वीआईपी नहीं.. अगर कुछ हो भी गया तो क्लास लगने का डर तो नहीं....
लेकिन सारे डॉक्टर एक जैसे नहीं होते...उसी कैट की एंबुलेंस में अंबेडकर अस्पताल की एक महिला डॉक्टर भी घंटों से है...वो भी अपनी बिरादरी के दूसरे साथियों के बर्ताव से परेशान है...कुछ समझ नहीं आ रहा कि आखिर करे तो क्या करे....रात अब सुबह से कुछ घंटों की दूरी पर है.....लेकिन मौत कैलाश के सिरहाने खड़ी है....मौत औऱ कैलाश का फासला तेज़ी से कम हो रहा है....और फिर देखते ही देखते नीमबेहोशी की हालत में घंटों से जिंदगी के लिए जूझ रहा कैलाश आखिर मौत से हार जाता है....

अंत में--जिस कैलाश को जीते जी एलएनजेपी अस्पताल ने भर्ती नहीं किया...उसी के पार्थिव शरीर को कम से कम अस्पताल के मुर्दाघर में जगह मिल जाती है....कागजी कार्रवाई होनी है...पोस्टमार्टम होना है....
आखिर कहूं तो क्या कहूं...लिखूं तो क्या लिखूं...सिवा इसके कि कैलाश हो सके तो माफ कर देना...

Wednesday, June 10, 2009

टीवी, टीआरपी औऱ गरियाने का समाजशास्त्र !

हाल के कुछ महीनों में खबरिया चैनलों की खूब खिंचाई हुई...कभी मुंबई हमलों के बहाने धोया गया तो कभी टीआरपी के पुराने डंडे को हथियार बनाकर पीटा गया....
हद तो तब हो गई जब टीवी की दुनिया में कुछ महीने या कुछ सालों पहले तक सक्रिय रहे पत्रकारों ने भी बड़ी बेरहमी से मनगढ़ंत कहानियां दुनिया के सामने पेश करने में जरा भी झिझक नहीं महसूस की...कंटेट पर सवाल उठाए गए...औऱ तमाम चैनलों की नीयत पर शक किया गया....इक्का दुक्का चैनलों को जरूर बेनिफिट ऑफ डाउट देकर छोड़ दिया गया औऱ दलील ये दी गई कि वो चैनल शोषितों औऱ वंचितों की बात करते हैं...किसानों-मजदूरों के हको-हकूक की बात उठाते हैं...असली इंडिया दिखाते हैं...हो सकता है...दिखाते भी हों...उन्हें गलत साबित करना मेरा मकसद नहीं...
मकसद सिर्फ ये बताना है कि गरियाना इन दिनों फैशन बन गया है....किसी के बारे में ना आगे सोचो ना पीछे---जी भर के गाली दो...सुर्खियां खुद ब खुद मिल जाएंगी....मिसालें भरी पड़ी हैं...ऐसा ही कुछ रोज पहले हुआ था जब अचानक मुझे खुशवंत सिंह पर एक सज्जन की प्रतिक्रिया पढ़ने को मिली...खुशवंत की लानत-मलानत जिस छिछोरे अंदाज में की गई थी...उससे साफ था कि जिन सज्जन ने भी शब्दों की ये उलटी की थी...उन्होंने शायद ही खुशवंत को कभी पढ़ा होगा...शायद वो ये भी नहीं जानते होंगे कि खुशवंत सिर्फ अखबारों में रसीले कॉलम नहीं लिखते...उनका लिखा ऐसा बहुत कुछ है जिसकी अकादमिक काबिलियत पर बड़े बड़े आलोचक भी टिप्पणी करने से कतराते हैं....मैं खुशवंत सिंह को दुनिया का सबसे महान लेखक साबित करने की ना तो हैसियत रखता हूं...औऱ ना ही ये दावा कर रहा हूं...मैंने ये वाकया सिर्फ ट्रेंड बताने के लिए आपके सामने पेश किया है....
इसी तरह टीवी और टीआरपी की बात करें....भूत-प्रेत-क्रिकेट-बॉलीवुड से सने कंटेंट की बात करें तो यकीनन आलोचना की गुंजाइश हर माध्यम में है और उतने के हकदार खबरिया चैनल भी हैं....इसके लिए ना तो मैं कोई सफाई पेश करना चाहता हूं औऱ ना ही इन्हें जायज ठहराने के लिए दलील दे रहा हूं....लेकिन गरियाने के फैशन में मशगूल भाई-बंधुओं को ये जरूर याद दिलाना चाहता हूं दर्शक जिसे चाहता है उसे देखता है....समय से बड़ा सेंसर बोर्ड कोई नहीं होता क्योंकि इसकी कैंची बड़ी बेरहम होती है....भूत-प्रेत अब ज्यादातर चैनलों से हवा हो चुके हैं....ऊटपटांग खबरें भी अब ज्यादातर चैनलों पर हाशिये में चली गई हैं....रहा सवाल क्रिकेट का तो अगर कोई खेल देश में सबसे ज्यादा देखा जाता है...जिसके हीरो अपने चाहने वालों की नजर में भगवान से कम नहीं...तो उनकी खबरें दिखाकर टीवी चैनल कौन सा गैरजमानती अपराध कर देते हैं...ये समझ से परे है!
खबरिया चैनलों से पुराना अखबारों का इतिहास है...लेकिन क्या एक भी अखबार का नाम जेहन में आता है जो बॉलीवुड की गर्मागर्म खबरों को छौंक लगाकर नहीं पेश करता हो...आखिर शीतल मफतलाल की गिरफ्तारी और फिर जमानत रातोंरात राष्ट्रीय महत्व की खबर कैसे बन जाती है! लेकिन तब तो आप खामोश हैं....लेकिन पड़ोसी मुल्क जहां की हर छोटी बड़ी घटना का असर हमारे देश पर हो सकता है...वहां तालिबान की करतूतों पर चैनलों ने दिखा दिया तो मानो पहाड़ टूट पड़ा हो....
...खैर अगली बार आप टीआरपी के बहाने खबरिया चैनलों की क्लास लेने में जुटे हुए हों तो जरा खुद के अंदर भी जरूर झांकिएगा....सिर्फ सुर में सुर मिलाकर गरियाने से लोकतंत्र नहीं मजबूत होता....आप दर्शक हैं...रिमोट उठाइये...औऱ बदल दीजिए वो चैनल जो आप नहीं देखना चाहते...

Sunday, June 7, 2009

अजीब दास्तां है ये...

सोचा था, आज भी नहीं लिखूंगा...लेकिन ऐसा हो ना सका...सो एक बार फिर हाजिर हूं....
जून की तपती दुपहरियों के इस जानलेवा मौसम में दिल्ली अक्सर लुटी-पिटी और बेदिल सी दिखती है....तब भी ऐसा ही था...सुबह से गर्म हवा के थपेड़े औऱ चढ़ते सूरज के साथ धूप का मिजाज उन दिनों भी इतना ही तीखा हुआ करता था...नॉर्थ कैंपस में एडमिशन के लिए लड़के लड़कियों की फौज तब भी पसीने से तरबतर हैरान-परेशान कॉलेज दर कॉलेज चक्कर काटती थी...आज भी ऐसा ही माहौल दिख जाएगा....
-जब जनवरी में गली करतार सिंह पर आखिरी पोस्ट लिखी थी....तब भी ब्लॉग की दुनिया लिक्खाड़ों से भरी-पूरी थी....गली-मुहल्ले-सड़कें-बस्ती-टोले गुलजार थे ...आज भी है...
-तो क्या सबकुछ यूं ही चलता रहता है! बदलता कुछ भी नहीं---या जो बदलता दिखता है---वो सब धोखा है--माफ कीजिए-बदलाव के दर्शन में आपको उलझाना कतई मकसद नहीं...मैं तो मौसम के बेरहम अंदाज को बयां कर रहा था....जो सुबह से ही कहीं निकलना मुहाल कर देता है....
खैर ये दास्तां अजीब है....इसलिए कृपया ओर-छोर तलाशने की कोशिश नहीं कीजिएगा...ये पता नहीं कहां शुरू हुई औऱ ना जाने कब खतम होगी....