Wednesday, June 10, 2009

टीवी, टीआरपी औऱ गरियाने का समाजशास्त्र !

हाल के कुछ महीनों में खबरिया चैनलों की खूब खिंचाई हुई...कभी मुंबई हमलों के बहाने धोया गया तो कभी टीआरपी के पुराने डंडे को हथियार बनाकर पीटा गया....
हद तो तब हो गई जब टीवी की दुनिया में कुछ महीने या कुछ सालों पहले तक सक्रिय रहे पत्रकारों ने भी बड़ी बेरहमी से मनगढ़ंत कहानियां दुनिया के सामने पेश करने में जरा भी झिझक नहीं महसूस की...कंटेट पर सवाल उठाए गए...औऱ तमाम चैनलों की नीयत पर शक किया गया....इक्का दुक्का चैनलों को जरूर बेनिफिट ऑफ डाउट देकर छोड़ दिया गया औऱ दलील ये दी गई कि वो चैनल शोषितों औऱ वंचितों की बात करते हैं...किसानों-मजदूरों के हको-हकूक की बात उठाते हैं...असली इंडिया दिखाते हैं...हो सकता है...दिखाते भी हों...उन्हें गलत साबित करना मेरा मकसद नहीं...
मकसद सिर्फ ये बताना है कि गरियाना इन दिनों फैशन बन गया है....किसी के बारे में ना आगे सोचो ना पीछे---जी भर के गाली दो...सुर्खियां खुद ब खुद मिल जाएंगी....मिसालें भरी पड़ी हैं...ऐसा ही कुछ रोज पहले हुआ था जब अचानक मुझे खुशवंत सिंह पर एक सज्जन की प्रतिक्रिया पढ़ने को मिली...खुशवंत की लानत-मलानत जिस छिछोरे अंदाज में की गई थी...उससे साफ था कि जिन सज्जन ने भी शब्दों की ये उलटी की थी...उन्होंने शायद ही खुशवंत को कभी पढ़ा होगा...शायद वो ये भी नहीं जानते होंगे कि खुशवंत सिर्फ अखबारों में रसीले कॉलम नहीं लिखते...उनका लिखा ऐसा बहुत कुछ है जिसकी अकादमिक काबिलियत पर बड़े बड़े आलोचक भी टिप्पणी करने से कतराते हैं....मैं खुशवंत सिंह को दुनिया का सबसे महान लेखक साबित करने की ना तो हैसियत रखता हूं...औऱ ना ही ये दावा कर रहा हूं...मैंने ये वाकया सिर्फ ट्रेंड बताने के लिए आपके सामने पेश किया है....
इसी तरह टीवी और टीआरपी की बात करें....भूत-प्रेत-क्रिकेट-बॉलीवुड से सने कंटेंट की बात करें तो यकीनन आलोचना की गुंजाइश हर माध्यम में है और उतने के हकदार खबरिया चैनल भी हैं....इसके लिए ना तो मैं कोई सफाई पेश करना चाहता हूं औऱ ना ही इन्हें जायज ठहराने के लिए दलील दे रहा हूं....लेकिन गरियाने के फैशन में मशगूल भाई-बंधुओं को ये जरूर याद दिलाना चाहता हूं दर्शक जिसे चाहता है उसे देखता है....समय से बड़ा सेंसर बोर्ड कोई नहीं होता क्योंकि इसकी कैंची बड़ी बेरहम होती है....भूत-प्रेत अब ज्यादातर चैनलों से हवा हो चुके हैं....ऊटपटांग खबरें भी अब ज्यादातर चैनलों पर हाशिये में चली गई हैं....रहा सवाल क्रिकेट का तो अगर कोई खेल देश में सबसे ज्यादा देखा जाता है...जिसके हीरो अपने चाहने वालों की नजर में भगवान से कम नहीं...तो उनकी खबरें दिखाकर टीवी चैनल कौन सा गैरजमानती अपराध कर देते हैं...ये समझ से परे है!
खबरिया चैनलों से पुराना अखबारों का इतिहास है...लेकिन क्या एक भी अखबार का नाम जेहन में आता है जो बॉलीवुड की गर्मागर्म खबरों को छौंक लगाकर नहीं पेश करता हो...आखिर शीतल मफतलाल की गिरफ्तारी और फिर जमानत रातोंरात राष्ट्रीय महत्व की खबर कैसे बन जाती है! लेकिन तब तो आप खामोश हैं....लेकिन पड़ोसी मुल्क जहां की हर छोटी बड़ी घटना का असर हमारे देश पर हो सकता है...वहां तालिबान की करतूतों पर चैनलों ने दिखा दिया तो मानो पहाड़ टूट पड़ा हो....
...खैर अगली बार आप टीआरपी के बहाने खबरिया चैनलों की क्लास लेने में जुटे हुए हों तो जरा खुद के अंदर भी जरूर झांकिएगा....सिर्फ सुर में सुर मिलाकर गरियाने से लोकतंत्र नहीं मजबूत होता....आप दर्शक हैं...रिमोट उठाइये...औऱ बदल दीजिए वो चैनल जो आप नहीं देखना चाहते...

4 comments:

Asha Joglekar said...

वही करते हैं । पर इससे टी वी चैनलों की गैर जिम्मेवारी कम नही हो जाती ।

श्यामल सुमन said...

एक सकारात्मक पक्ष रखने की सफल कोशिश। चाहे आप और भी तर्क दें लेकिन भाई कुछ न कुछ तो गड़बड़ तो जरूर है।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

परमजीत सिहँ बाली said...

आप की बात काफी हद तो सही है लेकिन टी वी चैनलों को भी कुछ तो जिम्मेदारी निभानी चाहिए अपनी।

MUKTIDOOT said...

गूगल सर्च करते हुए आपके ब्लॉग पर जाना हुआ...इसके अलावा भी कुछ लेख आपके पढ़े...लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इस अकेले लेख ने आपकी पूरी काबिलियत, संवेदनशीलता पर पानी फेर दिया। अश्लील साहित्य या वीडियो सबसे ज्यादा बिकता है, तो क्या वही दिखा देना चाहिए। आपनो जो लिखा हो सकता है वो विचार आपकी नौकरी करते रहने को जस्टीफाई करते हों। भई परिवार चलाने के लिए जरूरी है ये...