Wednesday, November 4, 2009

अपने-अपने दोजख




ख्वाबों के जंगल में भटकते हुए
पीली धूप के किसी पेड़ तले
उकताए, हारे, हांफते
एक दूसरे को निहारते...

कुछ महीने पहले सैय्यद जैगम इमाम की कविता पर लिखते वक्त अहसास नहीं था कि पीली धूप के पेड़ों तले एक दोजख भी है...लेकिन नहीं वो भूल थी जिसका अहसास मुझे अब हो रहा है..सबके अपने अपने दोजख हैं....और जैगम इमाम का भी..टीवी की व्यस्त दुनिया के बावजूद जैगम का पहला उपन्यास हाथों में देखकर यकीन नहीं हुआ...उपन्यास पहला जरूर है लेकिन मैच्योरिटी के लिहाज से जैगम पहली नजर में बड़े बड़ों की कन्नी काटते नजर आते हैं...
कहानी सीधी सी है...चंदौली जैसे छोटे से कस्बे का छोटा सा अल्लन...छोटे सपने-ललचाने वाले सपने...मचलने वाले अरमान...हहराती गंगा की लहरों में कूदने की ख्वाहिश...पतंगों औऱ कंचों में बसी दुनिया...सख्त अब्बा औऱ मुलायम मिजाज अम्मा की दुनिया..इस मासूम सी दुनिया में क्या कोई दोजख भी हो सकता है...क्या जन्नतों में भी नर्क की गुंजाइश है....ये सब सवाल जैगम चकित करने वाले भोलेपन के साथ उठाते हैं..ठीक उसी भोलेपन से जैसे वो पीली धूप के पेड़ों की तलाश में नज्म लिखते हैं....
उपन्यास की पूरी कथा मुख्य किरदार अल्लन के इर्द गिर्द घूमती है...अल्लन को भी पीली धूप के पेड़ों की तलाश है...अपनी छोटी सी दुनिया को देखकर अल्लन दिन-रात हैरान होता है...खुद से सवाल करता है...लेकिन ट्रैजिडी यही है कि उसे जवाब नहीं मिलते...ये ट्रैजिडी मन को बेहद छूती है...सच कहें तो कई बार आंखों को गीली कर देती है...
समाजशास्त्रीय खांचे के उत्तर आधुनिक विमर्श में उपन्यास कई बार सरहदों को तोड़ता दिखता है...कई बार ये सवाल उठते हैं कि क्या वाकई ऐसा मुमकिन है...क्या कस्बे के मामूली से लड़के का द्वंद्व ऐसा भी हो सकता है...लेकिन कहानी में अल्लन ही सबकुछ हो ऐसा भी नहीं है...क्योंकि आखिर में अल्लन के अब्बा की जो तस्वीर उकेरी गई है...वो औऱ भी झिंझोड़ने वाली है...वो पाठकों को औऱ भी भावुक करने वाली है....
खैर कहानी का खुलासा औऱ करना मुनासिब नहीं होगा...लेकिन जैगम को इस बात के लिए जरूर बधाई मिलनी चाहिए कि उन्होंने चंदौली के मिजाज को जिस भाषा में बयान किया है वो वाकई दिल के करीब है...कई जगह भदेस है...लेकिन ये भदेसपन भाता है...अल्लन की गालियां दिल को छूती हैं...कई पुराने शब्द जेहन में ताजा हो जाते हैं...
फेरन लवली (फेयर एंड लवली)..ये भी ऐसा ही एक लफ्ज है...
उपन्यास वक्त के खांचे में कितना फिट बैठता है इसका इंसाफ तो आने वाले साल करेंगे...पर ठोकबजाकर अभी ये राय जरूर बनाई जा सकती है कि जैगम का ये उपन्यास एक मजबूत आगाज है...हवा के ताज़ा झोंके की तरह है...ठीक उसी तरह जैसे आप किसी महानगर की सीलन भरी हवा से खुले जंगल-गांव में पहुंचते हैं औऱ ठंडी हवा के झोंके से अजीब सी झुरझरी देह को पल भर के लिए थरथरा देती है...
अल्लन भी आपको ऐसे ही सिहरने के लिए मजबूर कर देगा...

एक जानकारी--ये किताब राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापी है

2 comments:

Udan Tashtari said...

किताब के बारे में जानकर अच्छा लगा. कभी मिली,तो खरीद कर जरुर पढ़ने की चाहत रहेगी.

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प बयानगी है .मौका लगा तो इसे भी बांचेगे ....