Sunday, October 25, 2009

....तब कलेजा फट गया

भावुक नहीं हूं.....धर्म कर्म में दिलचस्पी भी बस स्वार्थ भर...गहरी मुसीबत में फंसे तो देवी-देवताओं को याद कर लिया....लेकिन फिर क्यों आंखें गीली हो गईं...गला रुंध गया...बरसों पीछे छूट गया वो नदी जैसा गंगासागर तालाब याद आया......घाटों पर छूटने वाले पटाखों की रोशनी और धमक जैसे ताजा हो गई....छठ के मौके पर घर की गहमागहमी याद आई औऱ ठेकुए की खुशबू भी कौंध गई....
मनोज तिवारी से लेकर दूसरे गायकों के छठी मइया पर गाए गानों को सुनकर ऐसा क्यों लगा मानो कलेजा फट गया हो...मां हर साल छठ पर आने के लिए कहती रहीं....लेकिन शहर छूटा तो ऐसा कि कभी जा ना सका....अब तो मां ने बीमार रहने और उम्र के चलते छठ उस तरह से करना छोड़ दिया है....लेकिन छठ के मौके पर जाना फिर भी ना हो सका.....
फिर आखिर वो कौन सी हूक थी कि जब मनोज तिवारी को छठी मईया के गाने गाते सुना तो रहा नहीं गया....क्यों याद आ गए वे दिन जब बचपन में छठ के लिए घाट को सजाने संवारने के लिए यार-दोस्तों के साथ घंटों बिताता था....सुबह टोकरी लेकर घाट पर जाना....भीड़ में मुश्किल से जगह बनाना....औऱ फिर सुबह के अर्घ्य के बाद घर लौटकर भरपेट प्रसाद खाना...औऱ मां के व्रत तोड़ने के लिए बने स्वादिष्ट खाने का छककर लुत्फ उठाना ....सब जैसे फ्लैशबैक की तरह आंखों के सामने डूबता उतराता रहा....छठ के ज्यादातर गानों को सुनें तो धुन एक सी लगती है....ये गाने तब उतने नहीं खींचते थे....लेकिन दस साल बाद मन की केमिस्ट्री में आखिर ऐसा क्या बदलाव आ गया कि छठी मइया के उन गानों को सुनकर पल भर के लिए लगा मानो मन विचलित हो गया हो....
कहीं ऐसा तो नहीं कि आप जितने बड़े होते जाते हैं उतने ही पीछे के दिनों में गहरे डूबते जाते हैं.....खैर कई चीजों के लिए कोई दलील नहीं दी जा सकती...शायद इसके लिए भी मेरे पास कोई तर्क नहीं.....लेकिन हर चीज के लिए कोई वाजिब वजह हो ये भी तो जरूरी नहीं....आंखें हैं, छलक पड़ीं तो छलक पड़ीं....क्या फर्क पड़ता है कि आप भावुक हैं या नहीं.....कलेजा चाक हो गया तो हो गया....इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि जिंदगी के दूसरे तमाम मौकों पर आप कितने पत्थर दिल थे....

5 comments:

वाणी गीत said...

त्योहारों की यादों को ज्यादा धार्मिक नहीं होने के बाद भी भुलाया नहीं जा सकता ...
हर आस्था का तर्क के साथ भी विश्लेषण नहीं किया जा सकता ...!!

सतीश पंचम said...

Nostalgic होना भी एक सुख है मित्र।

जब यादों को सहेजते आँखों के कोर भीग जाएं तो समझो कि मन अभी तक सांसे ले रहा है।

ravishndtv said...

सही कहते हैं। मैं भी कल पूरे दिन के लिए गड़बड़ा गया था। पत्नी ने कहा कि जब ऐसा ही है तो अगले साल से गांव ही रहेंगे। बहुत मुश्किल से कल का दिन कटा। कई बार आंसू आकर टपकने से पहले लौट गए। गला रुंधा सा रहा।

atit said...

वक़्त निकालिए और घर जाइए। छठ बीत गई तो क्या हुआ...बहुत सी यादें छठ के बाद की भी होंगी, जो ताज़ा होंगी तो अच्छा लगेगा। क्या अच्छा लगना आपको अच्छा नहीं लगता...

Ruby said...

लेखन का अंदाज बहुत निराला है...मुझे बहुत पसंद आया...