ढलती शाम की पीली-धुंधली-सिमटती सी धूप कई बार भीड़ में भी अकेलेपन का अहसास कराती है... खासकर अगर आप इंडिया गेट जैसी जगह पर हों तो अकेलापन आपको काटने भले ही नहीं दौड़े लेकिन दार्शनिक जरूर बना देता है....इत्तफाक से क्रिसमस वाले दिन मेरी छुट्टी थी...दिन ढलने को था औऱ मैं भी पता नहीं क्यों उस रोज इंडिया गेट चला गया....
घास पर लेटा...तो अचानक पता नहीं क्यों गुजर रहा साल जैसे मेरे सामने पूरी शिद्दत के साथ खड़ा था...हर रोज का हिसाब किताब माथे में घूम रहा था
साल ऐसे कई गुजारे पर नहीं मालूम क्यों ऐसा लगा मानो ये साल बस बीत गया...
घटनाएं आंखों के सामने फ्लैशबैक की तरह गुजरती चली गईं...मैं उनमें बहता चला गया....
समय के इस प्रवाह में ज्यादा क्या कहूं...क्या ना कहूं
लेकिन बस उम्मीद है जो हमको आपको सबको चलाए जाती है...
गुजरा है जो, वो साल अच्छा था
आएगा जो साल वो भी अच्छा होगा
फिलहाल उधार की चंद लाइनों के साथ आपको छोड़े जाता हूं---
-एक बिरहमन ने कहा है ये साल अच्छा है
ज़ुल्म की रात बहुत जल्द टलेगी अब तो
आग चूल्हों में हर इक रोज़ जलेगी अब तो
भूख के मारे कोई बच्चा नहीं रोएगा
चैन की नींद हर इक शख्स़ यहां सोएगा
आंधी नफ़रत की चलेगी ना कहीं अब के बरस
प्यार की फ़सल उगाएगी जमीं अब के बरस
है यकीं अब ना कोई शोर-शराबा होगा
ज़ुल्म होगा ना कहीं ख़ून-ख़राबा होगा
ओस और धूप के सदमे ना सहेगा कोई
अब मेरे देश में बेघर ना रहेगा कोई
नए वादों का जो डाला है वो जाल अच्छा है
रहनुमाओं ने कहा है कि ये साल अच्छा है
दिल को ख़ुश रखने को गालिब ये ख़याल अच्छा है
आमीन
Sunday, December 28, 2008
Saturday, December 20, 2008
खामोश समंदर प्यासा है...
ये शीर्षक अपने दोस्त जैगम इमाम की कविता से उधार लिया है...ये गुस्ताखी मुझे करनी पड़ी...क्योंकि जब वो रौ में अपनी नज्म सुना रहे थे तो रहा ना गया....पंक्तियां यूं ही ले लीं...लेकिन इनके पीछे का फलसफा बाद में समझ में आया....जिंदगी के चौराहे पर कभी आप ठिठक जाएं तो ये फलसफा आप भी समझ जाएंगे...खैर छायावादी बातों का कोई मतलब नहीं क्योंकि जब जिंदगी दो जोड़ दो बराबर चार के नजरिए से जीनी हो तो वहां ना तो वहां कोरी भावुकता का कोई मतलब होता है औऱ ना ही रोमानी सपनों का...सामने होती है सिर्फ हकीकत की सख्त जमीन...
लेकिन हकीकतों का तानाबाना भी तो अजब होता है....कई बार हकीकतें कल्पना की दुनिया से ज्यादा रपटीली होती हैं...ज्यादा घुमावदार होती हैं....कई बार वाकई आपको समंदर प्यासा मिल सकता है...कई बार खामोशी भी चीखती मिलती है...और चीख में भी सन्नाटा गूंजता है....
इस सन्नाटे का कोई मर्म नहीं होता....कई बार सन्नाटे गाते हैं....कई बार आपको भीतर तक कंपकंपा जाते हैं...कभी किसी पुराने पड़ गए घर की छत पर काई लगी बदरंग दीवारों और मुंडेरों से दुनिया देखिए तो वहां से आपको दुनिया अलग दिखेगी....लेकिन कभी किसी बहुमंजिली इमारत की किसी ऊंची सी मंजिल के शीशों से झांकिए तो नज़ारा दूसरा होगा...
खैर अपना दर्शन आप पर थोपूं...ये भी ठीक नहीं...
फिलहाल तो इस समंदर को प्यासा ही रहने दीजिए...
लेकिन हकीकतों का तानाबाना भी तो अजब होता है....कई बार हकीकतें कल्पना की दुनिया से ज्यादा रपटीली होती हैं...ज्यादा घुमावदार होती हैं....कई बार वाकई आपको समंदर प्यासा मिल सकता है...कई बार खामोशी भी चीखती मिलती है...और चीख में भी सन्नाटा गूंजता है....
इस सन्नाटे का कोई मर्म नहीं होता....कई बार सन्नाटे गाते हैं....कई बार आपको भीतर तक कंपकंपा जाते हैं...कभी किसी पुराने पड़ गए घर की छत पर काई लगी बदरंग दीवारों और मुंडेरों से दुनिया देखिए तो वहां से आपको दुनिया अलग दिखेगी....लेकिन कभी किसी बहुमंजिली इमारत की किसी ऊंची सी मंजिल के शीशों से झांकिए तो नज़ारा दूसरा होगा...
खैर अपना दर्शन आप पर थोपूं...ये भी ठीक नहीं...
फिलहाल तो इस समंदर को प्यासा ही रहने दीजिए...
Wednesday, December 10, 2008
आंधी की तरह उड़कर इक राह गुज़रती है...
अचानक मन उदास हो चला...कहानियां अब भी हैं जो अब सामने आ रही हैं....मुंबई हमलों की कहानियां...घटनाएं जो आज भी मन को छू जाती हैं....वाकये जो सिहरने के लिए मजबूर कर देते हैं...इस लेख के लिए हेडिंग जो चुनी बेशक वो टोन आपको बदला सा लगे...पर मुझे इस उदास दौर में सबसे बेहतर यही शीर्षक लगा...इसकी मेरे पास ना तो कोई व्याख्या है...ना ही कोई दलील...अच्छा लगा सो लिख दिया....
मन जाने क्यों....बार बार मन मुंबई की ओर भटकता है...बल्कि यूं कहें बहकता है....उस शहर से पता नहीं कौन सा रिश्ता है जो मुझे अक्सर खींचता है....गिरगाम चौपाटी हो या फिर सिद्धिविनायक....या फिर अक्सा बीच....या जुहू चौपाटी ...गेटवे पर कबूतरों के बीच मटरगश्ती...और समंदर की लहरों के बीच स्टीमर पर घूमना.....कुछ नाता जरूर है जो मुझे मुंबई से जोड़ता है....हवाओं में अजब सी मिठास है जिसे मैं आज भी महसूस करता हूं....ना तो वहां पला-बढ़ा औऱ ना ही सालों रहा....ना बचपन गुजरा औऱ ना ही बाद के दिन....लेकिन मैं उस शहर में जाता रहा हूं....वहां की गंध को आत्मा से महसूस किया है.....वो गंध आज भी मुझे लुभाती है....
और यही वजह है कि 26 नवंबर के हमलों के बाद वो शहर मुझे और अपना लगने लगा है...कुछ दोस्त हैं जो वहां से अक्सर मुझे याद करते हैं....कुछ पुराने नाते हैं जो शहर से रिश्ता तोड़ चुके हैं....लेकिन मुझे उनके बहाने भी मुंबई बहुत याद आती है....
शायद मुझे इसीलिए गुलजार की ये पंक्तियां याद आ रही हैं....
शायद इसीलिए आज मन बहक रहा है...
काश कि कोई राह होती जो आंधी की तरह उड़कर हमें मंजिलों तक पहुंचा सकती....
मन जाने क्यों....बार बार मन मुंबई की ओर भटकता है...बल्कि यूं कहें बहकता है....उस शहर से पता नहीं कौन सा रिश्ता है जो मुझे अक्सर खींचता है....गिरगाम चौपाटी हो या फिर सिद्धिविनायक....या फिर अक्सा बीच....या जुहू चौपाटी ...गेटवे पर कबूतरों के बीच मटरगश्ती...और समंदर की लहरों के बीच स्टीमर पर घूमना.....कुछ नाता जरूर है जो मुझे मुंबई से जोड़ता है....हवाओं में अजब सी मिठास है जिसे मैं आज भी महसूस करता हूं....ना तो वहां पला-बढ़ा औऱ ना ही सालों रहा....ना बचपन गुजरा औऱ ना ही बाद के दिन....लेकिन मैं उस शहर में जाता रहा हूं....वहां की गंध को आत्मा से महसूस किया है.....वो गंध आज भी मुझे लुभाती है....
और यही वजह है कि 26 नवंबर के हमलों के बाद वो शहर मुझे और अपना लगने लगा है...कुछ दोस्त हैं जो वहां से अक्सर मुझे याद करते हैं....कुछ पुराने नाते हैं जो शहर से रिश्ता तोड़ चुके हैं....लेकिन मुझे उनके बहाने भी मुंबई बहुत याद आती है....
शायद मुझे इसीलिए गुलजार की ये पंक्तियां याद आ रही हैं....
शायद इसीलिए आज मन बहक रहा है...
काश कि कोई राह होती जो आंधी की तरह उड़कर हमें मंजिलों तक पहुंचा सकती....
Saturday, December 6, 2008
मोशे फिर मुस्कुराएगा...
मुंबई के आतंकी पागलपन को गुजरे कई दिन हो गए...लेकिन चौबीसों घंटे टीवी चैनलों पर तबाही का जो मंजर दिखाया गया वो अभी ताज़ा है...घाव अभी सूखा नहीं है....आतंकी हमले पहले भी हुए हैं...लेकिन जो खूनी छाप इन हमलों ने छोड़ी है...उसे मिटाना बहुत मुश्किल है....बहुत मुश्किल है...मोशे को भूलना...रोता बिलखता मोशे...जिसे कमांडो ऑपरेशन में बचाया गया....दो साल का मोशे जिसके मां बाप नरीमन हाउस में आतंकियों की भेंट चढ़ गए...वही मोशे अब सात समंदर पार अपने वतन इस्राइल लौट गया है....लेकिन उसका चेहरा पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ सबसे बड़े प्रतीक के तौर पर उभर कर सामने आया है....उसका रोना दिल को हिला देने वाला है....उसके आंसू किसी पत्थरदिल को भी पिघलाने की कूवत रखते हैं....मोशे जिस प्लेन से अपने वतन लौटा उसी प्लेन पर ताबूत में उसके मां-पिता के शव भी भेजे गए...मोशे को अभी नहीं मालूम कि आतंकवाद क्या होता है...आतंकवादी क्या होते हैं....उसे तो ये भी नहीं मालूम कि किस जुर्म की सजा उसे मिली...उसे क्या मालूम कि उसका बचपन अब कभी पहले जैसा नहीं हो पाएगा....लेकिन हमें मालूम है....हमें मालूम है कि उसके मां-बाप अब कभी लौटकर नहीं आएंगे...कभी उसकी मां उसे गोद में नहीं खिला पाएगी....पिता का दुलार भी उसे भला कब मिल पाएगा....
क्या आपने मुंबई की उस अजीब सी सुबह में इस्राइली प्रार्थनाघर में वो मातम की भीड़ देखी थी...अगर देखी होगी तो क्या आप अपने आंसूओं पर काबू रख पाए होंगे....वो लोग मोशे के मां-पिता की मौत का मातम मनाने जुटे थे...उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जा रही थी...उसी भीड़ में मोशे भी चुपचाप बैठा था....उसके हाथों में लाल गेंद भी थी...साइनागॉग में बेशुमार लोगों की भीड़ के बीच भी उदास कर देने वाली खामोशी थी....जब भी मोशे रोता....लोग उसके साथ रोते....
अब मोशे अपने वतन लौट गया है
अब अगर सच्चे मन से कोई प्रार्थना करनी है तो बस यही कीजिए कि एक बार फिर से मोशे मुस्करा सके....
एक बार फिर से उसके चेहरे पर हंसी लौट आए....
इन जख्मों को भूलकर वो फले फूले
मोशे एक बार फिर से मुस्कुराए
आमीन
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