Saturday, November 1, 2008

बंद गली का आखिरी मकान!

अक्सर सियासत से जुड़े लोगों की शिकायत होती है कि चाहे मसला कुछ भी हो सारा दोष उनपर मढ़ दिया जाता है। हो सकता है एक-आध मामले में उनकी आपत्ति वाजिब हो...लेकिन ज्यादातर मामलों में नहीं....मराठी मानुष के बहाने सियासत का कोड़ा फटकार रहे राज ठाकरे औऱ हाल के दिनों की कई घटनाओं पर गौर करें तो तस्वीर साफ हो जाएगी। मुंबई जब जल रही होती है तब न तो केंद्र सरकार फिक्र करती है औऱ ना ही राज्य सरकार। उत्तर भारतीय हांके जा रहे होते हैं तो केंद्र से लेकर राज्य तक ऐसा कोई भी ठोस कदम उठाने की जरूरत नहीं समझी जाती जिससे लगे कि हां इस मुल्क में संविधान का राज है...कानून-व्यवस्था का आदर है...दिखाने के लिए राज ठाकरे की गिरफ्तारी होती है...औऱ शहीद का जामा देकर उन्हें पूरी इज्जत के साथ हीरो बनाकर वापस घर भेज दिया जाता है...जहां वीरों की तरह उनका स्वागत किया जाता है....जब इसी सियासत की भेंट चढ़े एक जवान बेटे की अर्थी पटना में उठ रही होती है तो दूर दिल्ली में नेता राजनीति की नूरा कुश्ती में ताल ठोंक रहे होते हैं...यहां कुसूर सिर्फ राज ठाकरे का नहीं है...ये पूरी की पूरी जमात ही कुछ ऐसी है...अब सबको पता है कि जिस विचारधारा की उपज राज ठाकरे हैं वो विचारधारा शिवसेना की है...शिवसेना यानी बीजेपी की साझीदार...उसी बीजेपी की साझा सरकार जेडी यू के साथ बिहार में चल रही है....लेकिन जेडी यू के नेता घड़ियाली आंसू बहाने से गुरेज नहीं कर रहे हैं...अगर वाकई जेडी-यू महाराष्ट्र की घटनाओं से आहत है तो बीजेपी को शिवसेना से अलग होने के लिए क्यों नहीं कहती...और अगर बीजेपी शिवसेना से नाता नहीं तोड़ती तो वो अपने रिश्ते बीजेपी से खत्म क्यों नहीं कर लेती...बीजेपी राष्ट्रीय एकता की दुहाई देते नहीं थकती...लेकिन क्या मराठी अस्मिता के झंडाबरदारों की करतूतों पर उसके किसी भी लौहपुरुष माने जाने वाले नेता का सख्त बयान आया है? ये तमाम सवाल चुनाव के वक्त जनता जरूर पूछेगी...और तब नेताओं को जवाब देना भारी पड़ जाएगा...
केंद्र सरकार की बात करें....तो पहली बार पीएम मनमोहन सिंह की ओर से बयान कल आया...सरकार को इतने दिन गुजर जाने के बाद शायद मसले की गंभीरता का अहसास हुआ....लेकिन ये लेटलतीफी क्यों...आखिर आप केंद्र की गद्दी पर बैठे किस लिए हैं...जब आप कानून-व्यवस्था के एक मामूली से मसले को नहीं सुलझा सकते....तो भाड़ में जाए ऐसी व्यवस्था...
लेकिन सबसे ज्यादा शाबासी की हकदार तो माननीय विलासराव देशमुख की सरकार है...खासतौर से महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटील ज्यादा तारीफ के पात्र हैं। मेमने का एनकाउंटर कर बर्बर शेर की खातिरदारी हो रही है और पाटील हर मौके पर कानून-व्यवस्था का गुणगान करने से बाज नहीं आते...अब राज ठाकरे की कल की प्रेस कांफ्रेंस को ही लें जिसमें वो बड़ी विनम्रता के साथ बखान कर रहे हैं कि छठ पूजा को लेकर कोई विरोध नहीं...लोग पूजा करें वो कोई विघ्न नहीं डालेंगे....लेकिन लाख टके का सवाल ये है राज साहेब कि ये लाइसेंस आपको किसने दिया कि आप किसे पूजा करने दें किसे नहीं! यहां ये भी बताना लाजिमी होगा कि राज ठाकरे की प्रेस कांफ्रेंस पर कोर्ट की पाबंदी लगी हुई है...फिर भी उन्हें पुलिस की ओर से छूट दी गई औऱ प्रेस कांफ्रेंस की इजाजत मिली...
ऐसे में क्या ये मान लिया जाए कि हमारी संवेदनाएं जहां खत्म होती हैं सियासत वहीं से शुरू होती है...या उलटकर कहें तो राजनीति जहां शुरू होती है वहां भावनाएं खत्म हो जाती हैं...खैर ये नतीजा हमें आपको सबको मिलकर निकालना है....फिलहाल तो ये सियासत बंद गली के आखिरी मकान की तरह है जिसमें बेदर्द हाकिमों के आगे आम आदमी की फरियाद नक्कारखाने में तूती से ज्यादा बिसात नहीं रखती...

8 comments:

संगीता पुरी said...

....फिलहाल तो ये सियासत बंद गली के आखिरी मकान की तरह है जिसमें बेदर्द हाकिमों के आगे आम आदमी की फरियाद नक्कारखाने में तूती से ज्यादा बिसात नहीं रखती...
बिल्‍कुल सही कहना है आपका।

Anonymous said...

यार ये क्या बौद्धिक ठेले जा रहे हो इतने दिनों से, वो अन्नू बाबू वाले किस्से का क्या हुआ आगे?

Unknown said...

सर, आप की चिंता तो एक दम वाजिब है लेकिन नेता भी क्या करें उनकी जात ही ऐसी है । जैसे कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती वैसे इस देश की राजनीतिक पार्टियां भी कभी सुधर नहीं सकती । सियासत के इस दौर में उनकी नजर तो केवल वोट वाली हड्डी पर ही है । उस हड्डी को हासिल करने के लिए वो किसी भी हद तक जा सकते हैं ।

laffaj no 1 said...

YE SURMA BHOPALI KAUN HAI.LAGTA HAI YE BHI PATRKAR HAI.

Anonymous said...

लफ़्फ़ाज़ नंबर एक ने मेरे बारे में कुछ इस तरह अपमानजनक तरीके से पूछा है जैसे मैं असली नाम छिपाकर बदमाशी करने वाला कोई बदमाश हूं। उनकी लाइन पर ध्यान दीजिये, लगता है ये भी पत्रकार है। क्या पत्रकार होना गुनाह है। मैं इस ब्लॉग के सारे चरित्रों को जानता हूं और ब्लॉग के सारे चरित्र मुझे। मैं अन्नू बाबू से सालों से कटा हुआ हूं और उनकी खोजखबर लेना चाहता हूं, इसलिये हर टिप्पणी में अपनी व्याकुलता दिखाता हूं। मेरी व्याकुलता पर इस अंदाज़ में टिप्पणी करना मैं समझ नहीं पाया। मॉडरेटर मिहिर बाबू अगर कुछ कहते तो मुझे समझ में आता। आपको मैं नहीं जानता, जानना भी नहीं चाहता, लेकिन इस तरह ज़हर बुझी भाषा में सवाल पूछने का कारण मैं अवश्य जानना चाहता हूं। मेरा मानना है कि ब्लॉग विचारों और यादों को बांटने के मंच होते हैं, किसी तरह की राजनीति करने और दिल और दिमाग का गुबार निकालने के नहीं।
मैं पत्रकार ही हूं, पिछले 18 साल से दिल्ली में मुख्यधारा की पत्रकारिता कर रहा हूं। विदेश में रह चुका हूं, कई पुरस्कार मेरे नाम हैं और मुझे सूरमा गोपाली नाम से भले ही कोई ना जानता हो मेरे असली नाम से मुझे रांजेद्र माथुर भी जानते थे, और एसपी सिंह भी। प्रभाष जोशी मुझे जानते हैं, आलोक मेहता मुझे जानते हैं, राजदीप मुझे जानते हैं और कमर वहीद नकवी साहब भी। असली नाम से इसलिये नहीं सामने आता कि मेरी उम्र और मेरे जितने सीनियर पत्रकार आम तौर पर इस तरह की ब्लॉगबाज़ी से दूर रहते हैं। लेकिन मैं सहारा के साथी मिहिर बाबू का ब्लॉग देखकर अपने को रोक नहीं पाया और सूरमा गोपाली के नाम से टिप्पणी करने लगा। मैं लफ़्फ़ाज़ी नहीं कर रहा हूं, हकीकत बयां कर रहा हूं। मेरा मकसद अपनी शेखी बघारना या आपको नीचा दिखाना नहीं है लेकिन छपा शब्द सवा लाख का होता है उसकी कीमत पहचानिये यूं ही किसी को भी कुछ मत कह दीजिये। नाम छुपाने से कुछ नहीं छिपता IP Address से पूरी जन्मपत्री मिल जाती है।

मिहिर said...

surma ji, unhe maaf kar dijiye, ye nahin jante ki shabd agar neeyat se nahin likhe jaayen to kya gul khila sakte hain. aap varishtha hain..isliye vinamra nivedan hai ki dil pe mat lijye.
duniya aani jani hai...marathon daud hai...farraata nahin..ek din sab kuch saaf ho jayega.
aapki utsukta ko dekhte hue mujhe lagta hai ki dicosta ki diary pe phir se lautna hi hoga.

Anonymous said...

मैं कुछ ज़्यादा बोल गया शायद। मेरी टिप्पणी को हटा दीजिये। धन्यवाद।

atit said...

तो आपकी गली, जिसे यादों के झरोखे से टाइप कुच चीज़ बनना था वो बहसबाज़ी का अड्डा बनाई जाने लगी। ये अच्छी बात नहीं है।

आपका बहुत दिनों से आग्रह था कि मैं भी आपका ब्लॉग पढ़ूं। सो आपके निर्देशों का पालन किया। अच्छा लगा कि आपके ज़ेहन ने क्रियान्वयता के लिए अलग कोना नहीं नहीं, गली, भी बना रखा है व्यवसायिक मजबूरियों से इतर...

आपने लिखा है कि सियासत शायद वहीं से शुरू होती है जहां से भावनाएं ख़त्म होती हैं। या इसके उलट भी सही है। पर आपकी रौशनाई से चटखे हुए कुछ और पन्ने कहते हैं, कि उन्हें भुला दो जिन्हें दिल भुला चुका या फिर लोग जिनकी हैसियत बढ़ गई है वो कम हैसियत वाले को पहचानने से इनकार कर देते हैं। ये भी लिखा है आपने कि हत्यारा दौर है अपना नाम सोच समझ के बताना। ये बातें समाज के मौजूदा दौर को दर्शाती हैं।
एक बात कहूं, समाज हम लोगों से ही बनता है। हम ही हैं इसके छोटे बड़े किरदार। हमारे में से ही कुछ लोग नेता बन जाते हैं। कुछ पत्रकार और कुछ ज़िंदगी के और तरह के किरदार जीते हैं। तो मौजूदा दौर हमारा आपका ही है। हमारी आपकी भावनाओं का है। हमारे आपके बर्ताव का है, उसमें आए बदलाव का है। अक्सर हम लोगों में बदलाव आ जाता है और हम जान नहीं पाते। लोग कहते हैं कि यार तुम बहुत बदल गए हो तो बुरा लगता है। हक़ीक़त कड़वी होती है। हमें बुरी लगती है।

दरअसल, सियासत हमारे आपके बर्ताव को दिखाता ही एक रूप है। ज़रा सोचिए हमारे आपके पुरखों के बारे में। सीधे, सरल थे। लोगों से खुले दिल से मिलते थे। कोई अजनबी अगर रास्ता पूछता आ जाता था तो रास्ता बाद में बताते थे, उसे पानी पहले पिलाते थे। और हां साथ में गुड़ की एक डली देना कभी नहीं भूलते थे। अगर सांझ का वक़्त होता था तो रात गुज़ारने की गुज़ारिश भी करते थे उस अनजाने मुसाफ़िर से।

और टेप को फास्ट फॉरवर्ड करके हम अपने ज़माने में आ जाएं।

किसी अजनबी को रास्ता बताना तो दूर हम आप मज़ाक मज़ाक में उसे भटका देते हैं। ये हमारे दौर का चलन है। पुरखे तो अजनबियों को भी पानी के साथ गुड़ की डली देते थे, और हम आप अपने बेहद क़रीबी लोगों को सादा पानी का ग्लास पकड़ाकर बैठ जाते हैं बदलते ज़माने को कोसने के लिए। तब नेहरू-गांधी और सरदार पटेल हुआ करते थे। अब नरसिम्हा राव-लालू यादव और मुलायम-अर्जुन सिंह जैसे नेता होते हैं।

नेहरू से जुड़ा एक क़िस्सा पढ़ा था कभी--एक बार कांग्रेस, दक्षिण के किसी राज्य के लिए मुख्यमंत्री तलाश रही थी। एक नेता जी नेहरू के पास पहुंचे और कहा कि मैं सबसे उपयुक्त उम्मीदवार हूं। नेहरू जी ने पूछा-भई, तुम्हारे अंदर क्या काबिलियत है। तो उन साहब ने कहा कि मैं झूठ नहीं बोलता,ईमानदार हूं, जनता की सेवा करता हूं, कर्तव्यनिष्ठ हूं। नेहरू ने तपाक से जवाब दिया-जनाब ये गुण तो किसी भी आदमी के आदमी होने के लिए ज़रूरी हैं। अपनी कोई काबिलियत बताइये, जो आपको दूसरों से बेहतर इंसान साबित करे।

आज के दौर में इंसान के इंसान होने के लिए ज़रूरी गुण ही ग़ुम होते जा रहे हैं। ऐसे में सियासत को क्या कोसना, मौक़ापरस्तों को क्या गरियाना। बदलाव चाहिए तो अपने अंदर से लाना होगा। हम सबको।