Sunday, March 25, 2007
जब बौराए मन
मई में जब मन बौराए....दिन हवा के थपेड़ों सा उड़न छू हो जाए....शाम आकर ठिठक जाए...उन दिनों को घर की बालकनी में बैठकर याद करना...या फिर बंद पड़ी किताबों की अलमारी से कोई भूली बिसरी सी कविता पढ़ना...या फिर हर की पैड़ी पर बैठकर गंगा की लहरों में डूबते-उतराते दीयों को देखना...सोचना....गुनगुनाना...अपनी ही बातों में खो जाना..
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3 comments:
दर्द बढ़ता ही गया जितनी भी दवा की। कमोबेश यही हाल लिखकर अपना दर्द बयां करने वालों का है। तफ्सील में अपना दर्द बताना हो तो शब्द बेहद आसान मोहरे बन जाते हैं। पर ये बात दूसरों का दर्द बयां करने के मामले में मात खाती लगती है। क्यूं होता है ऐसा कि अपना ही दर्द बड़ा लगता है, भारी लगता है,तकलीफ़देह लगता है, दूसरों के आगे। ये सवाल है जिस पर बहस छिड़नी चाहिए। मालूम तो हो दूसरों का हाल बताने में इतनी मशक्कत क्यूं मालूम होती है। शब्दों की कमी क्यूं खलती है। खुद को बौना क्यूं पाता है इंसान जब दर्द दूसरों का जताना होता है। कह देना आसान है कि अपना दर्द बड़ा होता है। लेकिन कहावत ये भी है कि जाके पांव न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई। भाई जब आपके पांव में बिवाई फटी तो बहुते दरद हुआ रहा। पर जब दूजे ने कहा कि कांटा चुभा और बड़ा दरद होइ रहा तो तुम आंख काहे फेरे। काहे न मालूम पड़ी उसकी पीर। तो भइया जे सवाल है जो हम छोड़े जात हैं।
baba, may mein abhi der hai, kahe bauraye man???
baba may mein letter milega, phirt baurayeega......
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