रात भर के सफर में नींद ठीक ठाक आई। सुबह होते होते ट्रेन पटना पहुंच गई, राजेंद्र नगर टर्मिनल पर उतरा, पहले ये नहीं था कुछ अरसा पहले खुला है, पहले तो पटना जंक्शन पर उतरना पड़ता था, खैर बाहर निकलने पर पटना की धुंधली सी धूल भरी, थोड़ी उमसाई सुबह इंतजार कर रही थी, बदला तो कुछ भी नहीं था, आया भले सालों बाद, कुछेक इमारतें नई दिखाई दीं, रहन-सहन-पहनावे का फर्क जरूर नजर आया, सड़कें कमोबेश वैसी ही थीं, लेकिन जहां तहां ओवरब्रिज तने खड़े थे, जिससे ये अहसास जरूर हो रहा था कि शायद बिहार वाकई बदल गया है।
एक दिन पटना रूका औऱ फिर अगली सुबह पटना से रैय्याम के लिए निकल पड़ा, गंगा सेतु (पुल)जब बना था तब लोग इसे देखने के लिए बिहार भर से आते थे, नदी के इस पार से उस पार शान से खड़े इस पुल ने उस जमाने में दूरियों को जिस तरह कम दिया था वो लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था, लेकिन वक्त बदला औऱ वो शान अब गर्दो गुबार में ढंक गया है। पुल जहां से शुरू होता है औऱ जहां खत्म होता है वहां तक घनघोर अराजकता के सिवा और कुछ नहीं नहीं, पुल कई जगह से टूट चुका है, थरथराते पुल पर सफर का ये अनुभव सिर्फ शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।
पुल पार करने पर हाजीपुर और फिर टूटे-टाटे रास्ते में कभी पगडंडी पर गाड़ी तो कभी सड़क पर सफर बदस्तूर जारी रहा, मुजफ्फरपुर जब आया तो तो भी कहीं से नहीं लगा कि वाकई कुछ बदला है, ना कोई ट्रैफिक, ना ही सड़क, बहुत साल पहले गर्व से भरे वो बोल याद आए जब लोग मुजफ्फरपुर की तुलना ना जाने दुनिया के किन किन शहरों से करते थे। लेकिन सचमुच ऐसा लगा जैसे घड़ी की सुई यहां उलटी घूम रही है,
वैसे पूरा किस्सा बताते बताते ये जरूर साफ कर दूं कि मकसद कहीं से बिहार के विकास की परख का नहीं है,
इसे बस एक डायरी के चंद पन्ने समझ लीजिए, जिसपे आप कई बार यूं हीं बेमतलब कुछ लिख जाते हैं, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं।
Saturday, March 27, 2010
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